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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

रहा है, उसपर जो जुल्म, डायरशाही, या जो भी कहिए, ढाई जा रही है, उसके सम्बन्धमें हम कितने लाचार है। हमारी लाचारीका जब हमें निश्चित एहसास होगा, तब हम, शायद और किसीका नहीं तो कमसे-कम जानवरोंका अनुकरण करना सीख सकेंगे, जो तूफान और वर्षाके समयमें एक जगह इकट्ठे होते हैं और एक-दूसरेसे गरमी और हिम्मत पाते हैं। वे उस तूफानके देवतासे अपने प्रकोपको कम करनेके लिए व्यर्थ प्रार्थना नहीं करते हैं, बल्कि सिर्फ उसका उपाय ही कर लेते हैं।

और हम हिन्दू और मुसलमान तो एक-दूसरेसे लड़ते हैं और दिन-ब-दिन दोनोंका मतभेद बढ़ता हुआ ही दिखाई दे रहा है। हम लोगोंने अभीतक चरखेका अभिप्राय भी नहीं समझा है; और जो समझते हैं वे खादी न पहनने और सूत न कातनेका कुछ-न-कुछ बहाना ढूँढ़ निकालते हैं। हमारे चारों ओर तूफान उमड़ रहा है और फिर भी हम एक-दूसरेसे हिम्मत और गरमी पाने की कोशिश करने के बजाय ठण्डमें ठिठरते रहना या तुफानके देवताओंसे अपना हाथ रोकलेनेके लिए प्रार्थना करना ही पसन्द करते हैं। यदि मैं हिन्दुओं और मुसलमानोंमें एकता नहीं स्थापित कर सकता और लोगोंको चरखेको अपनानेके लिए नहीं समझा सकता, तो मुझमें कमसे-कम इतनी समझदारी तो है ही कि मैं दयाकी भीख मांगने के लिए किसी याचिकापर दस्तखत न करूँ।

और राष्ट्र-संघ क्या है? सच पूछा जाये तो क्या वह सिर्फ फ्रान्स और इंग्लैंड का ही नहीं है? क्या दूसरी ताकतोंका उसपर कुछ भी वश चलता है। क्या फ्रांससे, जो समानता, न्याय और भाई-चारेके अपने आदर्शसे मुँह मोड़ रहा है, प्रार्थना करने से कुछ लाभ होगा? उसने जर्मनीके साथ न्याय नहीं किया है, रीफ[१] लोगोंके साथ उसका कोई भाईचारा नहीं है और सीरियामें वह समानताके सिद्धान्तको कुचल रहा है। यदि हमें इंग्लैंडसे प्रार्थना करनी है, तो उसके लिए राष्ट्र-संघतक जानेको हमें कोई जरूरत नहीं है। वह तो हमारे घरके पास ही है। हाँ, यह बात अवश्य है कि वह ज्यादातर तो शिमलाके पहाड़ोंकी ठण्डी हवा ही लेता रहता है और हमारे बीच दिल्ली में कभी-कभी ही आता है। उससे प्रार्थना करना वैसा ही है जैसा ऑगस्टसके खिलाफ सीजरसे प्रार्थना करना।

इसलिए हमें इस कठोर सत्यको खुली आँखों देखना चाहिए और राष्ट्रसे अपना फर्ज अदा करने के लिए प्रार्थना करना सीखना चाहिए। भारतके जरिये ही सीरियाका दुःख दूर होगा। यदि हममें अपनी महत्ताको समझने की शक्ति नहीं है, तो फिर हमें अपनी लघुताको स्वीकार करके चुप ही रहना चाहिए। लेकिन हमें छोटा बननेकी जरूरत नहीं है। हम कमसे-कम एक काम तो अच्छी तरह करें। वह यह कि या तो चौपायोंकी तरह मरते दमतक लड़ें या फिर मनुष्यकी तरह, दुनियाने जैसा व्यापक सहयोग आजतक कभी नहीं देखा हो, ऐसे व्यापक सहयोगके जरिये खुद भी यह सीखें और दुनियाको भी सिखायें कि अपनेसे कमजोर लोगोंका शोषण

 
  1. मोरक्को निवासी।