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टिप्पणियाँ

करना व्यर्थ है, बल्कि पाप है। और करोड़ों लोगोंमें ऐसा सहयोग केवल चरखेसे ही सम्भव है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १२–११–१९२५
 

२४०. टिप्पणियाँ
शान्ति-दूत

जितनी सेवा बन पड़े करो और फिर उसे भूल जाओ—श्री एन्ड्रयूजने अपने लिये तो यही तय किया है। उनकी सेवाका रूप अकसर झगड़ेको मिटाकर शान्ति स्थापित करना होता है। अभी उन्होंने उड़ीसामें दुःखी और पीड़ित मनुष्यों और मवेशियों तथा बम्बईके मिल-मजदूरोंके बीच अपना काम पूरा ही किया था कि उन्हें दक्षिण आफ्रिकामें जाकर वहाँके दुःखी भारतीय प्रवासियोंकी मदद देनेकी आवश्यकता महसूस होने लगी। लेकिन वहाँ वे केवल भारतीयोंकी ही नहीं, यूरोपीयोंकी भी मदद करेंगे। उनमें द्वेष अथवा क्रोधका लेश भी नहीं है। वे हिन्दुस्तानियोंके प्रति कोई विशेष अनुग्रह नहीं चाहते। वे तो सिर्फ न्याय ही चाहते हैं। श्री एन्ड्रयूज दक्षिण आफ्रिकाके लिए अजनबी नहीं हैं।[१] दक्षिण आफ्रिकाके राजनीतिज्ञ यह बात जानते और मानते है कि वे यूरोपीयोंके भी उतने ही मित्र है, जितने कि हिन्दुस्तानियोंके। भारतीयोंका प्रश्न बड़े ही नाजुक दौरमें पहुँच चुका है। और दक्षिण आफ्रिकामें रहनेवाले भारतीयोंके लिए जीवन-मरणका प्रश्न बन गया है। ऐसे कठिन समयमें श्री एन्ड्रयूजके वहाँ होनेसे उन्हें बड़ा ढाढ़स बँधेगा। ईश्वर करे, इस सज्जन व्यक्तिके प्रयत्न पहलेकी ही तरह सफल हों। लेकिन श्री एन्ड्रयूजके अपने बीच होने-भरसे दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंको सुरक्षाकी किसी झूठी भावनासे आश्वस्त होकर चुपचाप नहीं बैठ जाना चाहिए। उनके वहाँ होनेसे ही भारतीयोंके कष्ट दूर नहीं हो सकते। वे तो केवल उन्हें सलाह दे सकते हैं, मार्ग दिखा सकते हैं, और सुलह कराने के लिए प्रयत्न कर सकते है। लेकिन जबतक स्वयं वहाँ रहनेवाले भारतीयोंमें मिलकर काम करनेको क्षमता और हिम्मत न होगी, तबतक उनकी सलाह, उनके मार्ग-दर्शन और सुलहकी बातचीतसे कोई लाभ न होगा।

अफीम सम्बन्धी रिपोर्ट

कांग्रेसकी तरफसे अफीमके सम्बन्धमें असममें की गई जाँचकी रिपोर्ट प्रकाशित हो गई है। यह कांग्रेस कार्यालय, जोरहाट, असम या श्री एन्ड्रयूज, शान्तिनिकेतन, के पतेपर लिखकर डेढ़ रुपये या दो शिलिंगमें प्राप्त की जा सकती है। रिपोर्ट बहुत अच्छी छपी है। उसमें १६६ पृष्ठ है। उसमें एक नक्शा, कुछ परिशिष्ट, आये।

 
  1. एन्ड्रयूज १९१४ में दक्षिण अफ्रीका गये थे जबकि गांधीजी भी वहीं थे, देखिए खण्ड १२।