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भाषण : ईसाइयोंकी सभामें

ईश्वरने बनाया है तो हमें एक-दूसरेसे क्यों डरना चाहिए या उन लोगोंसे घृणा क्यों करनी चाहिए जो हमारे जैसा विश्वास नहीं रखते? इसपर कोई हिन्दू मुझसे पूछ सकता है, जब कोई मुसलमान ऐसा काम करे जो कि मेरे लिए अत्यन्त घणास्पद है तब क्या मुझे बैठे-बैठे उसे देखते रहना चाहिए? मेरे भ्रातृत्वका यही उत्तर है कि "हाँ।" मैं इतना और जोड़ता हूँ कि "आपको अपनी कुर्बानी करनी होगी", या उन शब्दोंमें, जिन्हें आपने अभी सुना है, कहूँ तो यह कि आपको ईसाकी तरह शूलीपर चढ़ जाना चाहिए। आप जिसे प्यार करते हैं, यदि आप उसका बचाव करना चाहते है तो आपको बिना मारे मरना होगा। मुझे इस प्रकारकी घटनाओंके निजी अनुभव है। यदि आपके पास खुशीके साथ कष्ट-सहनका साहस है तो आप पत्थरसेपत्थर दिलको भी पिघला देंगे। आप ऐसे व्यक्तिके विरुद्ध हाथ उठा सकते हैं, जिसे आप बदमाश समझते हों, किन्तु यदि वह आपपर हावी हो जाये, तब आप क्या करेंगे? तब क्या वह बदमाश आपपर विजय प्राप्त करनेके कारण और अधिक भयानक नहीं हो जायेगा? क्या इतिहास यह नहीं बताता कि प्रतिरोधके कारण ही बुराइयाँ बढ़ती है? इतिहासमें इस प्रकारके भी उदाहरण है कि लोगोंने अपने ऐसे प्रेमके बलपर, जिसकी सीमामें सभी आ जायें, भयानकसे-भयानक व्यक्तियोंको भी अपने वशमें कर लिया है। किन्तु मैं यह स्वीकार करता है कि इस प्रकारके अप्रतिरोधके लि उस सैनिकसे ज्यादा साहसकी जरूरत है जो दुश्मनपर एकके बदले दो प्रहार करता है। मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि यदि किसी व्यक्तिके मनमें दुष्टके प्रति प्रेम नहीं बल्कि गुस्सा है तो उसे कायरोंकी तरह मरनेसे डरकर बैठें रहनेकी अपेक्षा पापीसे खुल्लमखुल्ला लड़ लेना चाहिए। कायरता और भ्रातृत्व दोनों विरोधी शब्द है। मैं जानता हूँ कि संसार उस बुनियादी स्थितिको, जिसे मैंने आपके सामने रखनेकी कोशिश की है, स्वीकार नहीं करता। मैं जानता हूँ कि ईसाई यूरोपमें अप्रतिकारके सिद्धान्तका मजाक उड़ाया जाता है। आजकल मेरे पास सम्पूर्ण युरोप और अमेरिकासे अनेक मित्रोंके कितने ही मूल्यवान् पत्र आते हैं। कुछ पत्र-लेखक मुझसे अप्रतिकारके सिद्धान्तको और अधिक विस्तारसे प्रतिपादन करनेके लिए कहते हैं। कुछ अन्य लोग मुझपर हँसते हुए मुझसे कहते हैं कि "आप भारतमें ऐसी बातें करें, यह बिलकुल ठीक है, किन्तु आप यूरोपमें ऐसा करनेका साहस न करें।" कुछ दूसरे लोग मुझसे कहते हैं कि "हमारा ईसाई-धर्म तो हमारी कमियोंको ढंकनेका प्रयत्न-भर है; हम ईसाके सन्देशको नहीं समझते; वह सन्देश अभी हमतक पहुँचा ही नहीं है; यह कार्य तो अभी शेष है कि कोई उसे हमें इस तरह समझाये कि हम उसे समझ सकें।" ये तीनों ही स्थितियाँ लेखकोंके अपने दृष्टिकोणसे कमोबेश सही है। किन्तु मैं आपसे यह कहनेका साहस करता हूँ कि जबतक हम इस बुनियादी स्थितिपर नहीं आते, तबतक इस संसारके लिए शान्ति नहीं है और तबतक भ्रातृत्वका नाम लेना पाखण्ड है। ऐसी भी स्त्रियाँ और ऐसे भी पुरुष हैं जो पूछते हैं, "क्या प्रतिकारसे दूर रहना मनुष्यके लिए सम्भव है? मैं कहता हूँ, यह मनुष्यके लिए सर्वथा सम्भव है। अबतक हमने अपनी मानवताको पूरी तरह पाया नहीं है, हमने अपनी गरिमाको जाना नहीं है।