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विवेचन निरर्थक तार्किक दृष्टिकोणसे नहीं, वरन् व्यापक ऐतिहासिक दृष्टिकोणसे करें। इसी तरह वे यह आशा भी रखते हैं कि निबन्ध लिखनेवाले चर्मालयों और दुग्धशालाओंके प्रश्नपर भी इसी प्रकार विचार करेंगे। इसलिए वे गो-रक्षा प्रयत्नके विकासका इतिहास बताते हुए, ऐसे ढंगसे, जो धार्मिक विधानोंसे असंगत न हों, गायों और इसलिए, पशु-मात्रकी रक्षा करने और ठीक ढंगसे उनके पालन सम्बन्धी उपायोंपर विचार करेंगे।

एक महाशयने पत्र लिखकर पूछा कि निबन्ध कितना बड़ा होना चाहिए। लेकिन इसकी कोई सीमा निर्धारित करना आवश्यक नहीं समझा गया है, क्योंकि यह बात तो लेखकोंके विषय प्रस्तुत करने के अपने-अपने ढंगपर निर्भर करती है। लेकिन मोटे तौर पर मैं इतना अवश्य कहूँगा कि निबन्ध जितना छोटा हो, उतना ही अच्छा। मैं परीक्षकोंके विषयमें इतना तो जानता ही हूँ कि यह कह सकूँ कि निबन्धोंके आकारसे वे किसीभी तरह प्रभावित होनेवाले नहीं है। इसलिए हरएक लेखक खुद जैसा ठीक समझे, वैसा करे। हाँ, मैं उनसे यह आशा जरूर रखता हूँ कि वे निबन्ध लिखकर उसे दुबारा सावधानीसे पढ़कर देख लेंगे और जहाँ भी जरूरी होगा, उसे काट-छाँट कर ठीक कर देंगे। कताईपर लिखे निबन्धोंके सिलसिलेमें अपने अनुभवको देखते हुए ही मैं यह चेतावनी दे रहा हूँ।

एक दूसरे महाशयने समय बढ़ाने के लिए लिखा है, और उसके लिए उचित कारण भी बताया है कि संस्कृतके जो आचार्यगण इसमें भाग लेना चाहेंगे, वे निर्धारित समयके भीतर शायद अपना काम पूरा न कर पायें। इसलिए मैं बड़ी खुशीसे अन्तिम तिथिको बढ़ाकर ३१ मार्च, १९२६ के बजाय ३१ मई, १९२६ कर देता हूँ।

अब एक सुझावपर विचार करना बाकी रह जाता है। एक महाशयने निबन्ध लिखनेके लिए दूसरी भाषाओंके साथ संस्कृत भाषाको भी चुननेकी उपयोगिताके बारेमें शंका करते हुए पत्र लिखा है। संस्कृतको चुननेका कारण यह है कि हिन्दुस्तान में संस्कृतके पण्डित काफी बड़ी तादादमें है। हम चाहते हैं कि उनको इस बातके लिए अवसर और प्रोत्साहन दिया जाये कि वे भी अपनी विद्याका लाभ राष्ट्रको दें। अपनी दक्षिण यात्रामें मुझे कई ऐसे पण्डितोंसे मिलनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ, जो वर्त्तमान आन्दोलनों में बड़ी दिलचस्पी लेते है, लेकिन जिनकी विद्याका हमें कुछ भी लाभ नहीं मिलता, क्योंकि संस्कृतको आजकल महत्त्व नहीं दिया जाता। मुझे आशा है कि संस्कृतके विद्वान्, जो अच्छी अंग्रेजी नहीं जानते हैं या अगर जानते हों तो भी, राष्ट्रको संस्कृतमें एक प्रामाणिक निबन्ध तैयार करके देंगे। कहनेकी जरूरत नहीं कि यदि संस्कृतका निबन्ध इनामके लिए पसन्द किया गया, न केवल हिन्दी और अंग्रेजीमें बल्कि उर्दू और दूसरी महत्त्वकी भाषाओंमें भी उसका अनुवाद तैयार कराया जायेगा। सब कुछ पुरस्कारके लिए लिखे गये निबन्धकी खूबियोंपर ही निर्भर रहेगा। मैं आशा धार्मिक साहित्यमें एक स्थायी स्थान प्राप्त कर सके; फिर वह किसी भी भाषामें क्यों न लिखा जाये।