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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

कातो, कातो, कातो!

यदि आप इस अंकमें अन्यत्र प्रकाशित किये गये हकीम साहबके पत्रमें कही गई बातोंको महसूस करते हों, तो आप अखिल भारतीय चरखा संघमें अवश्य ही दाखिल होंगे और इस तरह राष्ट्र अगर चाहे तो जिस एक बड़ी चीजको आज भी हासिल कर सकता है, हासिल करानेमें मदद करेंगे। जब हममें से बहुत-से लोग उस कार्यको करेंगे, तभी तो राष्ट्र उसे हासिल कर सकेगा। और ऐसा करनेका सबसे अच्छा तरीका यही है कि हम सब लोग चरखा संघके सदस्य बनें और दूसरोंको भी बननेके लिए प्रेरित करें। खादी न पहनने और चरखा न चलानेके लिए बहाने न खोजिए, इसके विपरीत खादी पहननेके और चरखा चलानेके लिए हर तरहके कारण खोजिए। आप अपनी किसी भी दूसरी प्रवृत्तिका त्याग किये बिना उसके सदस्य बन सकते हैं। त्यागके नामपर आपको सिर्फ विदेशी और मिलके बने कपड़ेके प्रति अपनी रुचिका ही त्याग करना है। यदि आप उस त्यागके जबरदस्त राष्ट्रीय लाभपर विचार करें तो देखेंगे कि यह त्याग कोई बहुत बड़ा त्याग नहीं है। पिछले तीस सालसे हम लोग स्वदेशीकी बातें करते आ रहे है। १९०६ से हम लोग विदेशी, और कमसे-कम ब्रिटिश मालके बहिष्कारकी बातें तो बहुत करते आ रहे हैं, लेकिन उन्हें कार्यान्वित करनेमें हमने गम्भीरतासे काम नहीं किया। नतीजा यह है कि हम कुछ भी नहीं कर पाये हैं। अनुभवसे यह बात सिद्ध हो चुकी है कि अगर हम लोग कुछ कर सकते है तो वह विदेशी कपड़ेका बहिष्कार ही है। यदि हम जीवित रहना चाहते हैं, तो बुद्धिका तकाजा यही है कि हमें इस बहिष्कारको सफल बनाना होगा। ऐसा करनेका हमें अधिकार है और यह हमारा फर्ज भी है। मैं तो यह कहने का भी साहस करता हूँ कि इस सीधे-सादे और आवश्यक बहिष्कार कार्यक्रमकों पूरा करने में हम सफलताकी मंजिलके जितने समीप पहुँच पाये हैं, उससे अधिक समीप और किसी बातमें नहीं पहुँच पाये हैं। यदि अच्छे और सदाशयी लोग चरखा संघमें काफी तादादमें शामिल हो जाये तो इस काममें पूरी सफलता मिल सकती है।

खादीका सूचीपत्र

बम्बईकी प्रिंसेज स्ट्रीटमें अखिल भारतीय खादी मण्डलके (अब चरखा संघ) के अधीन चलनेवाले खादी भण्डारके व्यवस्थापकने मुझे ठीक तरहसे मुद्रित कीमतोंका सूचीपत्र भेजा है। खादीने जो प्रगतिकी है, वह उसपर से मालूम की जा सकती है। इस भण्डारको खुले चार साल हुए हैं और इस दरमियान कुल ८, ३०, ३२९ रुपयेकी बिक्री हुई। १९२२–२३ में सबसे ज्यादा बिक्री हुई थी, अर्थात् २, ४५, ५१५ रुपयेका माल बिका था और सबसे-कम बिक्री इस साल हुई है, अर्थात् १, ६८, २८० रुपयेका माल बिका है। ऐसा कहा गया है कि १९२२–२३ में मेरे जेलमें होने के कारण बिक्री अधिक हुई थी। लोगोंने यह खयाल किया, और उनका यह खयाल सही भी था कि वे जितनी अधिक खादीका इस्तेमाल करेंगे, उतना ही अधिक वे स्वराज्यके नज़दीक पहुँचेंगे, और स्वराज्य मिल जायेगा तो मैं भी रिहा हो जाऊँगा। लेकिन, गलती ऐसा सोचने में थी कि खादी केवल अस्थायी रूपसे ही आवश्यक है। सचाई यह है