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कि जिस प्रकार हमें सदा अपने ही देशके अनाज और हवाकी आवश्यकता है, उसी प्रकार खादीकी भी हर समय आवश्यकता है। मगर कम बिक्री होना भी एक तरहसे अच्छा ही है। बशर्तें कि यह इस बातका द्योतक हो कि इतनी बिक्री सदा ही होती रहेगी। इस भण्डार और दूसरे भण्डारोंके अस्तित्वसे यह साबित होता है कि वे एक ऐसी माँगकी पूर्ति कर रहे हैं, जिसे लोग सचमुच महसूस करते हैं। लेकिन सालाना एक लाखसे कुछ अधिक रुपयेकी बिक्री होनेसे तो खादी कोई राजनैतिक परिणाम नहीं दिखा पायेगी। इसके लिए कई करोड़, और ठीक-ठीक कहा जाये तो सालाना ६० करोड़की बिक्री होना आवश्यक है। इसलिए, बम्बईके लोगोंको खादीका इतना अधिक उपयोग करना चाहिए कि यहाँ इस तरहके सिर्फ एक-दो भण्डार ही नहीं, बल्कि जिस प्रकार विदेशी वस्त्रोंके कई सौ भण्डार चलते हैं उसी प्रकार कई सौ खादी भण्डार चल सकें। अब तो जनताके पास इस भण्डारको और ऐसे ही बहुतसे दूसरे भण्डारोंको सहारा न देने का कोई बहाना भी नहीं रह गया है, क्योंकि अब उनमें सभी तरहकी विवेकसम्मत रुचियोंके अनुकूल माल बिकता है। सूचीपत्रमें कमीजके लायक खादी, खादी मलमल, साड़ियाँ, धोतियाँ, तौलिये, रुमाल, तैयार कमीजें बनियाने, टोपियाँ, थैलियाँ, पलंगकी चद्दरें, शाल, परदे, ओढ़नेकी चद्दरें, मेजपोश, तकियागिलाफ, ब्लाउज, बच्चों और बड़ों, दोनोंके लिए जाँघिये, पाजामे इत्यादि बहुत-सी चीजें हैं। लेकिन इसपर टीका करनेवाले महाशय कहते हैं कि उनकी जरा कीमत भी तो देखिए। मैंने उनकी कीमतका भी हिसाब लगाकर देख लिया है और मनको पूरी तरह सन्तोष है कि ऊपरी तौरपर देखने में कीमत जहाँ कुछ अधिक मालूम होती है, वहाँ दरअसल वह अपेक्षाकृत कम है, क्योंकि आप खादीपर जो पैसा खर्च करते हैं, उससे खादी तो मिलती ही है, साथ ही उसका यह भी मतलब होता है कि आप स्वराज्यके लिए कुछ दे रहे हैं। यदि आपको यह विश्वास नहीं है कि खादीमें स्वराज्य प्राप्त करनेकी शक्ति है, तो आप यही समझें कि खादी खरीदकर आप कमसेकम क्षुधात स्त्रियों और पुरुषोंकी सहायता तो कुछ अंशोंमें कर ही रहे हैं। यदि खादी पहननेवाले अपने कपड़ेके लिए सालाना औसतन १० रुपया भी खर्च करें तो ऐसे चार खादी पहननेवाले साल-भर एक क्षुधा-पीड़ित मनुष्यका पोषण तो अवश्य करते हैं। जिन्हें अपने देशसे प्रेम है और गरीबोंकी फिक्र है, उन्हें खादीकी इतनी शक्ति और सम्भावना देखते हुए भी क्या वह कभी महँगी लग सकती है?

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १२–११–१९२५