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रामनाम और खादी

उनपर मुझे क्रोध भी नहीं होता है; किन्तु मुझे अपनी भक्तिमें ही न्यूनता होनेके कारण स्वयं अपनेपर क्रोध होता है। और मेरे हृदयमें राम सर्वदा निवास करे इसके लिए अधिक हृदयशुद्धिकी आवश्यकता है; यह उपदेश पानेके लिए मैं सदा लालायित रहता हूँ और मैं अपनेको सदा यही उपदेश देता रहता हूँ। यदि भक्तिमें रस पैदा न कर सकेतो यह भक्तका दोष है, श्रोताका नहीं। रस हो तो श्रोता उसे अवश्य ही लूटेंगे। लेकिन यदि रस ही न हो तो श्रोताओंका क्या दोष? यदि कृष्णकी बंसी गूँजती, किन्तु उसमें से कर्कश शब्द निकलता होता तो उसे सुनकर गोपियाँ भयभीत होकर भाग जातीं और उससे निन्दा कृष्णकी ही होती, गोपियोंकी नहीं। अर्जुन बेचारा यह थोड़े ही जानता था कि वह पढ़ा हुआ मूर्ख है और अपनी विद्वत्ता दिखाने में गोलमाल कर रहा है। लेकिन कृष्णकी शुद्धताने अर्जुनको शुद्ध कर दिया और उसका मोह दूर हुआ। इसलिए जो रामनामका प्रचार करना चाहता है उसे स्वयं अपने हृदयमें ही उसका प्रचार करके उसे शुद्ध कर लेना चाहिए और उसपर रामका साम्राज्य स्थापित करके उसका प्रचार करना चाहिए। फिर उसे संसार भी ग्रहण करेगा और लोग भी रामनामका जप करने लगेंगे। लेकिन जिस किसी स्थानपर रामनामका चाहे जैसा जप कराना तो पाखण्डकी वृद्धि करना और नास्तिकताके प्रवाहका वेग बढ़ाना है।

एक जगह बैठनेसे मनुष्य स्थिर थोड़े ही हो सकता है। जिसका मन सदा करोड़ों योजनकी मुसाफिरी करता है और जो शरीरको बाँधकर बैठा है उसका राम भी क्या सुधार कर सकेंगे। लेकिन जो दमयन्तीकी तरह जंगल-जंगल भटकता है और पेड़ोंसे, जंगलके जानवरोंसे भी अपने रामरूपी नलकी खबर पूछता रहता है, उसे भटकता हुआ कहेंगे? यह क्यों न कहें कि बैठें हुएको जो भटकता देखता है और भटकते हुएको जो स्थिर देखता है वही ठीक देखता है? कर्त्तव्य कर्मकी स्थापना कैसे की जा सकती है? कर्म करनेसे ही न? यदि ऐसा ही है तो मैं संसार जीत चुका हूँ, क्योंकि जिसे मैं नहीं करता उसका कभी उपदेश नहीं देता। इस 'पुराने जोगी' के मोहकी बात मुझे पाठकोंको सुनानी होगी। यदि दूसरे लोग यह नहीं जाने तो यह क्षन्तव्य है; लेकिन यह 'जोगी' तो यह जानते ही है कि मेरे पास ऐसे पार्षद ही नहीं जो सद्भावसे लिखे गये ऐसे पत्र मेरे पास शीघ्रन पहुँचा दें। यह पत्र तो मुझे फौरन ही मिल गया था, लेकिन मैं आज दो महीने के बाद उसका उत्तर दे सका हूँ। इसमें दोष किसका है? बेचारे गरीब निन्दापात्र बने हुए पार्षदोंका है, मेरा है, विधिका है या पत्र लिखनेवालेका ही है? इसमें हम लोग लिखनेवालेका ही दोष मान लेंगे। जो लोग मुझे धर्मसंकटमें डालनेवाले ऐसे पत्र लिखते हैं उन्हें राह देखनी चाहिए, धीरज रखना चाहिए। उन्होंने जो समस्या मेरे सामने रखी है, वह ऐसी तो है ही नहीं कि जिस प्रकार में यह पलमें कह सकता हूँ कि मिलके सूतका बना कपड़ा खादी नहीं है उसी प्रकार उसका भी उत्तर दे सकूँ। ऐसे पत्रोंका उत्तर देनेसे रामनामकी महिमा घट जानेका भी डर मुझे लगा रहता है। इसलिए यह खयाल भी होता है कि इसका उत्तर ही न दें तो क्या नुकसान है? और फिर

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