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यात्री-दिवस

यात्री-दिवस मनाने का और भारतके एक हिस्सेको दूसरेसे जोड़नेवाले रेल मार्गोंसे या जलमार्गोंसे यात्रा करनेवाले करोड़ों लोगोंकी अवस्थामें हुए सुधारका जायजा लेनेका खयाल बड़ा अच्छा है। मेरे लिये वे दिन कितने अच्छे थे, जब मैं तीसरे दर्जेंमें यात्रा किया करता था। तब मेरे पास रेलगाड़ीपर या जहाजपर तीसरे दर्जेंमें चलनेवाले यात्रियोंकी अवस्थाके विषयमें कहनेको बहुत-कुछ होता था। लेकिन 'आँख ओझलपहाड़ ओझल' वाली कहावतके अनुसार, अब चूंकि मैं अपनी शारीरिक असमर्थताके कारण रेलगाड़ीके तीसरे दर्जेंमें यात्रा करनेकी हिम्मत नहीं करता, उसका अनुभव नहीं उठाता, इसलिए अब मैंने उसपर लिखना भी बन्द कर दिया है। लेकिन, आगामी यात्री-दिवस हमें उन करोड़ों मूक व्यक्तियोंके प्रति अपने कर्त्तव्यका स्मरण कराता है, जो निहायत असुविधापूर्ण ढंगसे बने गन्दे डिब्बोंमें बोरोंकी तरह ठूँस दिये जाते हैं और जिनकी आवश्यकताओंकी ओर कोई कभी ध्यान नहीं देता, लेकिन, रेलवे अधिकारियोंकी लापरवाहीके कारण होनेवाली असुविधाएँ तो इस कष्टका एक अंश-मात्र हैं। उस हिस्सेपर जोर देना भी ठीक ही है। लेकिन इन यात्रियोंकी असुविधाओंके लिए खुद इनकी लापरवाही और अज्ञान भी उतना ही बड़ा कारण है। इसलिए, उस अवसरपर देशके विभिन्न भागोंमें की जानेवाली सभाओंमें बोलनेवाले लोग अगर यात्रियोंको यह समझाये कि अपने प्रति खुद उनका कर्त्तव्य क्या है, तो अच्छा हो। अगर हम यह चाहते हों कि रेलगाड़ीके तीसरे दर्जें के डिब्बोंमें यात्रा करना आदमीके लिए बरदाश्त करने लायक हो सके तो गन्दी आदतों, अपने पड़ौसके व्यक्तिका कोई खयाल न करनेकी प्रवृत्ति, डिब्बोंके भरे रहनेपर भी उनमें घुस जानेका आग्रह और ऐसी ही बहुत-सी दूसरी आदतोंको दूर करना जरूरी है। इसके लिए बहुत सावधानीकी जरूरत है और ऐसा अन्देशा है कि इस सम्बन्धमें हमें खुद अपने व्यवहारमें जो सुधार करने हैं, उनको हाथमें लेनेवाली संस्थाको प्रारम्भमें लोगोंकी नाराजीका भी सामना करना पड़ेगा। श्री जीवराज नेणशी और उनके साथी संगठनकर्त्ताओंके लिए मैं सम्पूर्ण सफलताको कामना करता हूँ।

नैतिक दुर्बलता

एक सज्जन लिखते हैं :

मैं खुद हिन्दू हूँ और सबसे ऊँचे वर्गके ब्राह्मणोंमें से हूँ। किन्तु में प्रगतिशीलताके पक्षमें हूँ। मैं बुद्धि में विश्वास करता हूँ, क्योंकि बुद्धि ही ईश्वर है और ईश्वर बुद्धिसे अलग नहीं है। सोऽहंके सिद्धान्तका आग्रह रखनेवाले हिन्दूदर्शनने आज भेदकी एक ऐसी दीवार खड़ी कर दी है, जिसे पार करना एवरेस्टको पार करनेसे भी कठिन है। जिस धर्मका आधार-स्तम्भ मनकी पवित्रता थी वही आज थोथे कर्मकाण्डी रीति-रिवाजोंसे इतना प्रस्त हो गया है कि उसका सच्चा स्वरूप दिखाई नहीं देता। जो संस्कृति इस बातका आग्रह करके चल रही थी कि "सृष्टिके सभी प्राणी भाई-भाई हैं और ईश्वर सबका पिता है", वही