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सूझ-बूझका परिणाम है। उनका नाम है जयकृष्ण इन्द्रजित। गुजरातमें विशेषज्ञ लोग कम ही है। श्रीयुत जयकृष्ण इनमें से सर्वप्रमुख लोगोंकी श्रेणी में आते हैं। पेड़-पौधोंसे उन्हें बड़ा प्रेम है। उन्होंने पोरबन्दर राज्य की बारडा पहाड़ियोंके पशु और वनस्पतिजीवनपर एक बहुत ही तथ्यपूर्ण पुस्तक लिखी है। अभी वे कच्छमें वन-अधिकारी हैं, और कच्छ तथा उस राज्यके निवासियोंमें जंगल लगाने तथा उसकी रक्षा करने में रुचि पैदा करनेकी कोशिश कर रहे है। वे मानते हैं कि अगर समझदारीके साथ पेड़-पौधे लगाये जायें तो कच्छमें दूध-दहीकी नदियाँ बहने लगे। उनका विचार है कि जो हिस्से आज हवाके साथ-साथ बालू उड़कर आनेके कारण बर्बाद होते जा रहे है, उन हिस्सोंमें रहनेवाले लोगोंमें से हरएक अगर यह संकल्प कर ले कि जिस तरह वह गाय खरीदता और पालता है, उसी तरह वह हर साल एक पेड़ भी लगायेगा और उसकी देखभाल करेगा तो उन अंचलोंको सुन्दर उपवनोंका रूप दिया जा सकता है। उनके इस विचारसे सहमति प्रकट करने की धष्टता में भी करता है। वे वृक्ष-रोपण और वृक्ष-रक्षणकी जो लुभावनी सम्भावनाएँ बता रहे हैं, वे सब चाहे सच हों चाहे न हों, किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि कच्छमें बड़े पैमानेपर पेड़-पौधे लगानेकी आवश्यकता है। कच्छमें इंधनके लिए एक भी पेड़को काटना पाप है। राज्यको इंधनके लिए जितनी भी लकड़ी या कोयलेको आवश्यकता हो, सब बाहरसे मँगाना चाहिए। कच्छ-जैसे स्थानों में एक भी पेड़को काटना अपराध माना जाना चाहिए। इसलिए, मुझे आशा है कि माण्डवीमें स्थापित संस्था सारे कच्छमें अपनी शाखाएँ खोलेगी। जनता तथा राज्यके पारस्परिक सहयोगसे कच्छको शीघ्र ही हज़ारों पेड़-पौधोंसे भर दिया जा सकता है। कच्छ के निवासी कुछ विशेष खर्च किये बिना उस राज्यकी सम्पत्ति और सौन्दर्य में अपरिमित वृद्धि कर सकते हैं। उनका मार्ग-दर्शन करने के लिए एक सुयोग्य और उत्साही व्यक्ति उनके बीच मौजूद है। सवाल इतना ही है; क्या वे उसके मार्ग-दर्शनमें चलनेको समझदारी और शक्ति दिखायेगे।

जो बात कच्छपर लागू होती है, वह बात काठियावाड़पर भी लगभग उतनी ही लागू होती है। असीम सम्भावनाओंसे पूरित यह प्रदेश छोटे-छोटे राज्योंमें विभक्त है, जिनमें से प्रत्येक प्रभसत्ता सम्पन्न—प्रभसत्ता किसी की कुछ कम, किसी की कुछ ज्यादा—है। किन्तु उनके बीच आपसमें कोई ताल-मेल नहीं है। इसलिए भौगोलिक दृष्टिसे सुसम्बद्ध इस छोटेसे प्रायद्वीपमें रहनेवाले लोगोंमें यद्यपि और बातोंमें कोई भिन्नता नहीं है, फिर भी उनके शासक और जिन नियमोंसे वे शासित होते हैं, वे अलग-अलग हैं, अतः वहाँ एक सामान्य नीतिके बिना वन-रक्षण, व्यवस्थित ढंगसे पेड़-पौधे लगाना, सिंचाई और दूसरे बहुतसे काम ठीक तरहसे नहीं किये जा सकते। कुछ दिन पहले मैंने इस विषयमें श्री एमहर्टका मत दृढ़ किया था। उन्होंने कहा था कि अगर काठियावाड़के रजवाड़े और लोग वृक्ष-रक्षणको कोई सामान्य नीति बनाकर उसके अनुसार नहीं चलते तो सम्भव है, काठियावाड़में जलका इतना अभाव हो जाये कि एक समयमें वीर सेनानियोंको जन्म देनेवाली उस भूमिमें जीना दूभर हो जाये। कच्छ, राजपूताना, सिंध और ऐसे ही दूसरे क्षेत्रोंके सभी स्कूलोंमें व्यावहारिक