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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
भयंकर महायुद्धसे पन्द्रह वर्ष पूर्व में एक स्वतन्त्र व्यक्ति था और अनुसन्धानका काम करता था। किन्तु अब? अब तो जर्मन मुद्राका भारी अवमूल्यन हो जाने के बाद जर्मनीके अन्य हज़ारों विद्वानोंकी तरह में भी एक भिखारी हूँ। अब मैं ४५ वर्षका हो चुका हूँ। आप सोच नहीं सकते कि मैं किस तरह निराश और हताश हूँ और यूरोपमें रहता हुआ कितनी ऊब और परेशानी महसूस करता हैं। यहाँ आदमीमें आत्मा तो है ही नहीं। वे एक-दूसरेको निगल जानेवाले जंगली जानवर है। क्या मेरा भारत पहुँचना सम्भव है? क्या मैं एक भारतीय दार्शनिक बन सकूँगा? मुझे भारतमें विश्वास है और में आशा करता हूँ कि वह हमें उबार लेगा।

इस पत्रकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ तो किसी भारतीय क्लर्कपर भी अक्षरशः घटती हैं—वह भी अपना हाल लिखने बैठता तो इन्हीं शब्दोंका प्रयोग करता। उसकी स्थिति जर्मन क्लर्कसे किसी तरह अच्छी नहीं है। भारतमें भी बुरे लोग सुख-समृद्धिका जीवन व्यतीत कर रहे हैं, किन्तु अच्छे लोगोंका जीवन एक सतत संघर्ष बना हुआ है। इसलिए यहाँ दूरके ढोल सुहावनेवाली बात ही लागू होती है। इन जर्मन सज्जन जैसे भाइयोंको यह समझ रखना चाहिए कि भारतकी स्थिति जर्मनी या किसी भी देशसे बेहतर नहीं है। वे यह भी समझ लें कि धन-सम्पत्ति व्यक्तिकी अच्छाईकी कसौटी नहीं है। सच तो यह है कि इसकी एकमात्र कसौटी अक्सर गरीबी ही हुआ करती है। नेक आदमी स्वेच्छासे गरीबीका वरण करता है। अगर पत्र-लेखक सज्जन किसी समय सुख-समद्धिका जीवन बिता रहे थे तो उन्हें याद रखना चाहिए कि उन दिनों जर्मनी दूसरे देशोंका शोषण कर रहा था। अपनी स्थितिका इलाज हर देशके हर व्यक्तिके हाथमें है। हरएकको अपने अन्दर हो शान्ति ढूँढ़नी है। सच्ची शान्ति तो तभी मिल सकती है, जब वह बाह्य परिस्थितियोंके प्रभावसे मुक्त हो। पत्र-लेखक कहते है कि अगर उनकी भतीजी नहीं होती तो वे पादरी हो जाते। मुझे तो इस बातमें विचार-दोष दिखाई देता है। उन्होंने जो लिखा है उससे मुझे तो ऐसा लगता है कि उनकी वर्त्तमान स्थिति उनकी कल्पनाके पादरीकी स्थितिसे अच्छी है। कारण, अभी उन्हें कमसे-कम एक बेसहारा व्यक्तिकी देख-भाल तो करनी पड़ती है, पादरीका बिल्ला लग जानेपर तो उन्हें किसीकी फिक्र करने की जरूरत नहीं बच रहेग सच तो यह है कि पादरीके रूप में उन्हें ऐसी सैकड़ों भतीजियों, बल्कि भतीजोंकी भी देख-भाल करनी पड़ेगी। पादरीकी हैसियतसे उनकी जिम्मेदारीका दायरा विश्वव्यापी होगा। इस समय तो वे सिर्फ अपने और अपनी भतीजीके लिए ही मेहनत करते हैं, किन्तु पादरी बन जानेपर उन्हें समस्त पीड़ित मानवताके लिए मेहनत करनी होगी। इसलिए मैं इन तथा ऐसे ही दूसरे भाइयोंको यह सलाह देने की धृष्टता करूँगा कि वे पादरीपनका जामा ओढ़े बिना ही समस्त दुःखी जनोंके साथ तादात्म्य स्थापित करें। फिर तो वे वह सब-कुछ करनेकी स्थितिमें आ जायेंगे जो पादरियोंका कर्त्तव्य होता है। साथ ही पादरियोंको जिन बड़े-बड़े प्रलोभनोंका खतरा रहता है उससे भी वे मुक्त रहेंगे।