पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 28.pdf/५१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४८३
अमेरिकामें कताई


वे जर्मन बन्धु भारतीय दार्शनिक बनने में सुख मानेंगे। किन्तु, वे सच मानें कि तत्त्वज्ञानमें स्थान-भेद नहीं होता। एक भारतीय दार्शनिक भी उतना ही अच्छा या बुरा होता है, जितना कि कोई यूरोपीय तत्त्वदर्शी।

मेरे विचारसे, पत्र-लेखकने एक बातका अनुमान ठीक लगाया है। वैसे तो भारतमें भी आत्मा-शून्य दोपाये जंगली जानवर है, किन्तु शायद औसत भारतीय-मानसकी प्रवृत्ति अपने अन्दरके पशुको दुतकार कर ही चलनेकी होती है। और मेरा यह निश्चित विश्वास है कि जो मार्ग भारतने १९२० में चुना उसपर यदि वह आरूढ़ बना रहा तो यूरोप बखूबी उससे बहुत-कुछ आशा कर सकता है। उस समय उसने बहुत सोच-विचारकर सत्य और अहिंसाका मार्ग चुना था, और इसको व्यावहारिक रूप देते हुए उसने चरखा और तमाम बुराइयोंके प्रति असहयोगका धर्म स्वीकार किया था। मैं उसे जितना जानता हूँ उसके आधारपर कह सकता हूँ कि उसने उस धर्मको छोड़ा नहीं है और न ऐसी कोई सम्भावना है कि वह उसे छोड़ेगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १९–११–१९२५
 

२४९. अमेरिकामें कताई

एक मित्रने न्यू लन्दनसे प्रकाशित एक अमेरिकी अखबारकी कतरन भेजी है। कतरनसे अखबारके नामका पता मुझे नहीं चल सका। उसमें कैसी हार्डविक द्वारा कताईपर लिखा एक सुन्दर लेख है। इससे प्रकट होता है कि स्वातन्त्र्य-यद्धके समय इसका अमेरिकियोंके बीच कितना चलन था और लेखकके अनुसार यह किस तरह उनकी सफलतामें सहायक सिद्ध हुआ। लेकिन पाठकोंके लिए सबसे दिलचस्प बात यह है कि अमेरिकामें भी इस पुरानी कलाको फिरसे जीवित किया जा रहा है। नीचे में उसके कुछ दिलचस्प अंश दे रहा हूँ।[१]

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया १९–११–१९२५
 
  1. देखिए परिशिष्ट ७।