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परिशिष्ट

 

परिशिष्ट १
स्वराज्य या मृत्यु

मैं आपके २५ जूनके 'यंग इंडिया' में कुछ ऐसी बातें छपी देख रहा हूँ, जिनको समझनेमें मैं सर्वथा असमर्थ हूँ। पृष्ठ २१९ पर 'कूदने को तत्पर,' शीर्षकसे मैं समझता हँ कि आपने अपने पत्र-लेखकसे यह स्पष्ट रूपसे समझानेको कहा है कि "आप यह क्यों सोचते हैं कि हमें जबतक स्वराज्य नहीं मिलता, हम तबतक सूत नहीं कात सकते और खद्दर नहीं पहन सकते या अस्पृश्यता निवारण नहीं कर सकते या मुसलमानोंसे हमारी एकता नहीं हो सकती? अंग्रेजों के चले जानेसे हिन्दुओंको मुसलमानोंका या मुसलमानोंको हिन्दुओंका विश्वास करने में, या धर्मान्ध रूढ़िवादियोंकी आँखें खोलने और दलित वर्गोंकी दशा सुधारने में या काहिल लोगोंको चरखा चलानेके लिए और बिगड़ी हुई रुचिके लोगों की रुचि सुधारने और उन्हें पुनः खद्दर पहनने के लिए तैयार करने में किस तरह मदद मिल जायेगी? निश्चय ही यदि हम इस समय मुसीबतोंके दबावसे इन कामोंको नहीं कर सकते तो हम नाम मात्रके स्वराज्यकी झूठी स्वतन्त्रताकी भावनासे आश्वस्त होनेपर तो उन्हें शायद करेंगे ही नहीं। यदि हम इन कार्योंको या इनमें से किसी कार्यको इस समय पूरा नहीं करते या पूरा करनेका प्रयत्न नहीं करते तो इसका कारण हमारी अनिच्छा, काहिली या इससे भी निकृष्ट किसी अन्य अवगुणके अतिरिक्त और कुछ नहीं है।"

मैं कह नहीं सकता कि पत्र-लेखक आपके इन प्रश्नोंका क्या जवाब देगा, लेकिन मैं सादर आपका ध्यान इस तरफ दिलाना चाहता हूँ कि आप जो इस बातपर जोर देते हैं कि खद्दर, हिन्दू-मुस्लिम एकता और अस्पृश्यता निवारणके बिना स्वराज्य नहीं मिल सकता यह भी झूठी धारणाओंपर आधारित प्रतीत होता है। आपके पत्र-लेखकने जिस दूसरी बातपर जोर दिया है, उसमें भी कुछ सच्चाई मालूम देती है और उसके समर्थन में मेरा यह कहना है :

(१) कताई और खद्दरका व्यवहार केवल स्वराज्यकी स्थापनाके बाद ही पूरी तरहसे प्रचलित होगा, उससे पहले नहीं क्योंकि :

सरकार प्रत्यक समाजका एक अविभाज्य अंग है। हर व्यक्ति हर क्षण उसकी मदद मांगता है। सरकारके उतने कार्यकालमें उसके अधीन सभी व्यक्तियोंके जीवन, सम्मान और सम्पत्तिका जिम्मा उसका होता है। कुछ लोगोंको सरकारसे अपने मामले अपने हकमें निपटवाने होते हैं, कुछको उपाधियाँ और सम्मान पाने होते है और कुछको पदोंपर अपनी नियुक्ति करानी होती है, आदि-आदि। हर व्यक्ति