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परिशिष्ट

आत्माकी भी पुकार मानकर स्वीकार नहीं कर पाता। इसका खेद मुझे सदा रहेगा; परन्तु यह प्रभुकी इच्छा है कि मनुष्यके प्रयासके पथ विविध हों, अन्यथा मनोवृत्तियोंमें यह अन्तर क्यों होते?

कितनी ही बार आदरकी मेरी व्यक्तिगत भावनाने मुझे बलपूर्वक प्रेरित किया है कि मैं महात्मा गांधीके चरखा-यज्ञका अनुयायी बन जाऊँ, लेकिन जब-जब ऐसा हुआ है, मेरे विवेक और मेरी अन्तरात्माने मुझे रोका है जिससे मैं चरखेको उससे अधिक ऊँचा स्थान न दूँ जो उसका प्राप्य है और इस प्रकार सर्वतोमुखी पुनर्निर्माण कार्यसे सम्बन्धित अधिक महत्त्वपूर्ण कार्योंकी ओरसे अपना ध्यान अन्यत्र न मोड़ें। मुझे विश्वास है कि स्वयं महात्माजी अन्यथा न समझेंगे और मेरे प्रति वहीं सहिष्णुता दिखायेंगे, जो वे सदैव दिखाते रहे हैं। मैं यह भी मानता हूँ कि आचार्य राय मत-स्वातन्त्र्यका आदर करते हैं, भले ही वह मत प्रिय न हो। इसीलिए अपने ही प्रचारके उत्साहमें बह जानेपर यद्यपि वे मुझे कभी-कभी बुरा-भला कह सकते है, परन्तु मुझे इस बातपर सन्देह नहीं है कि उनके मनमें मेरे प्रति कोमल भावना बनी रहती है। जहाँतक मेरे देशवासियोंका, जनताका प्रश्न है, उन्हें अपने मनकी सहज धारामें उनके प्रति की गई सेवाओंको और हानिको भी डुबो देनेका अभ्यास है, अतएव यदि आज वे क्षमादान नहीं भी करते तो कल भुला अवश्य देंगे। यदि वे ऐसा न भी करें, यदि मेरे प्रति उनकी नाराजी स्थायी ही बनी रहती हो, तो जैसे आज आचार्य सील मेरे अपराधमें मेरे साथी है, वैसे ही कल मुझे अपने पक्षमें ऐसे व्यक्ति मिल सकते हैं जिन्हें उनके देशने ठुकरा दिया हो, लेकिन जिनके व्यक्तित्वको आभासे प्रकट होता हो कि लौकिक अरुचिजन्य किसी भी बदनामीकी कालिमा कितनी अवास्तविक होती है।

[अंग्रेजीसे]
माडर्न रिव्यू, सितम्बर १९२५
 

परिशिष्ट ६
श्रेष्ठताका घुन

  1. हमारी समितिका लक्ष्य हमारी जातिकी एकता और पुनरुज्जीवन है।
  2. जहाँतक हम समझते हैं, आपका उद्देश्य त्रिमुखी है।
(क) खद्दर और चरखेका प्रचार-प्रसार।
(ख) हिन्दू-मुस्लिम एकता।
(ग) अस्पृश्यता-निवारण।

पहले दो उद्देश्य सभीके लिए समान है। हम आपके पास मुख्य रूपसे तीसरे उद्देश्यके लिए आये हैं और आपसे यह कहनेकी अनुमति चाहते हैं कि अस्पृश्यता किस प्रकार बंगालमें हिन्दुओंकी एकताके आड़े आ रही है।