पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 28.pdf/५५

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टिप्पणियां
ऐसा कोई काम देंगे जिससे मुझे कमसे-कम १०० रुपये मासिक मिलें? क्या आप मुझे डेपुटी मेयर (उप महापौर) या चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर (मुख्य कार्यपालक अधिकारी) से कह कर कलकत्ता निगममें कोई अच्छी जगह नहीं दिला सकते?

यह पत्र हमारे यहाँके औसत नवयुवककी मनोवृत्तिका परिचायक है। हजारों नवयुवकोंको ३० रुपये मासिकपर गुजर करना है। पर ये दुःखी देश-सेवक १०० रुपये मासिक या कमसे-कम २,००० रुपये एक मुश्त चाहते हैं। दोनों निवेदनोंमें कोई सम्बन्ध नहीं है; परन्तु इस आशासे कि वे मंजूर हो जायेंगे, पत्र-लेखकने उन्हें बहुत सहज भावसे लिख भेजा है। ऐसी आकांक्षाको पूर्ण करना असम्भव है। कलकत्ता निगम बेकारों के लिए नौकरी खोजनका साधन नहीं बनाया जा सकता। वास्तवमें देखा जाये तो सरकारी महकमोंमें और खानगी दफ्तरोंमें पहलेसे ही जरूरतसे ज्यादा नौकर भरती हैं। इसलिए इसका उपाय यह है कि एक तो हम देशको गरीबीका ध्यान रखते हुए अपनी आकांक्षाओंको कम करें और, दूसरे, रोजगारके लिए नये क्षेत्र खोजें। कृत्रिम जरूरतें कम कर दें, सामाजिक कुप्रथाओंको नमस्कार कर लें। यह रिवाज कि पूरे घरके लिए एक ही आदमी कमाये, हालाँकि घरके दूसरे लोग भी कुछ-न-कुछ काम करने लायक हों, मिटा देना चाहिए। तब ३० रुपये महीनेपर सन्तुष्ट रह सकना सम्भव हो जायेगा। बंगालके कितने ही नवयुवकोंने अपने विचारोंको नये रूपमें ढाल लिया है और वे ३० रुपये में गुजर कर रहे हैं, जब कि वे पहले प्रति माह चार-पाँच सौ रुपयेतक कमाते थे। रोजगारका जो एकमात्र साधन सैकड़ों युवकों और युवतियोंको काम दे सकता है, वह है एक सुसंगठित खादी सेवा संगठन। मैं आशा करता हूँ कि मैंने जिस अखिल भारतीय चरखा संघके विषयमें सोच रखा है, वह शीघ्र ही स्थापित हो जायेगा। मैं यह भी आशा कर रहा हूँ कि अखिल भारतीय देशबन्धु स्मारकमें भी लोगोंकी ओरसे यथेष्ट द्रव्य मिलेगा। अतएव रोजगारकी तलाशमें लगे तमाम ईमानदार स्त्री और पुरुष अगर कुशल बुनकर नहीं तो, सिद्ध हस्त घुननेवाले और कातनेवाले बनकर रोजगार पाने की अपनी योग्यता सिद्ध करें। उनसे यह नहीं कहा जायेगा कि आप सूत कातकर और कपड़ा बुनकर पेट भरें, बल्कि उन्हें खादीके उत्पादन और बिक्रीके काममें लगाया जायेगा। परन्तु इस संगठन-कार्यके लिए यह जरूरी होगा कि संगठन-कर्ताओंको धुनाई और कताई तथा कपासको बुनने लायक अच्छे सूतका रूप देने तककी तमाम प्रक्रियाओंका सही-सही ज्ञान हो।

सार्वजनिक जीवन में डराने-धकमानेके तरीकेका प्रयोग

दक्षिणसे एक सज्जन लिखते हैं :[१]

अगर यह खबर सच हो और मुझे लगता है कि सच ही है, और अगर इस बातमें तनिक भी सचाई हो कि पत्र-लेखक द्वारा बयान की गई गुंडागर्दी एक आम बात

  1. यह पत्र यहां नहीं दिया जा रहा है। पत्र लेखकने एक साथी सार्वजनिक कार्यकर्ताके पीटे जानेका उदाहरण दे कर लिखा था कि,"राजनीतिक मतभेदों को सुलझाने के लिए डराने धमकाने के तरीके आम हो जाने का खतरा पैदा हो गया है।"