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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हो गई है तो यह बहुत दुःखका विषय है। इससे तो उसी शक्तिकी जड़ें मजबूत होती है जिसके खिलाफ वे गुंडागर्दी करनेवाले लोग और हम, दोनों लड़ रहे हैं। मेरे पास दोनों पक्षोंके लोगोंके पूरे नाम और पते मौजूद हैं और मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं कि जिन लोगोंको इस वाकयेकी जानकारी है, वे इनका अनुमान लगा लेंगे। लेकिन, मेरा उद्देश्य कुकृत्य करनेवालोंकी कलई खोलना नहीं है। मैं तो इन कुकृत्योंका पर्दाफाश करना चाहता हूँ सो इस आशासे कि इनकी पुनरावृत्ति न हो। जिम्मेदार लोगोंको इस बुराईका इलाज करना चाहिए और इसे इस प्रारम्भिक अवस्थामें ही जड़मूलसे समाप्त कर देना चाहिए।

पुष्पहार या माला?

मैंने भारतके अनेक हिस्सोंमें, लेकिन विशेषकर बंगालमें, अतिथियोंका स्वागत करते हुए उन्हें सच्ची स्वदेशी मालाओंके बजाय बड़े-बड़े पुष्पहार पहनानेका रिवाज देखा है। मेरा खयाल है, चूंकि पुष्पहार मालाओंसे ज्यादा कीमती होते हैं, इसलिए पुष्पहार अर्पित करना लोग अधिक गौरवकी बात मानते हैं। ये पुष्पहार पश्चिमसे आई हुई चीजें हैं। जहाँतक मुझे मालूम है, इनका उपयोग ताबूतको सजानेके लिए किया जाता है। फूल तारमें गूंथे जाते हैं और यह तार अकसर बड़ा कष्टकर होता है। में भी एक भुक्तभोगी हूँ। अत्युत्साही प्रशंसकों द्वारा जबरदस्ती पहनाये गये हारोंके तारोंसे मुझें कई बार तकलीफ हुई है। चुभनेके डरसे हारको हाथमें ले जाना भी मुश्किल होता है। और चूंकि हार कड़ा होता है, इसलिए मेरे खयालसे उससे व्यक्तिकी शोभा बढ़ने के बजाय घटती ही है। इसके विपरीत धागेमें सुन्दर ढंगसे गूंथी हुई माला गलेसे झूलती हुई लटकती रहती है और उससे कोई कष्ट नहीं होता। क्या स्वागत समितियाँ आगेसे इस बातका खयाल रखेंगी?

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ६–८–१९२५
 

१२. क्या मैं अंग्रेजोंसे घृणा करता हूँ?

९ जुलाई, १९२५ के 'यंग इंडिया' में 'त्यागका शास्त्र' नामक मेरा लेख[१] प्रकाशित हुआ था। उसके नीचे दिये अंशके रेखांकित वाक्यपर कुछ आदरणीय अंग्रेज भाइयोंने आपत्ति की है :

मैं बिना किसी झिझकके कहता हूँ कि सिवा पारस्परिक त्यागके इस दुखी देशके उद्धारको कोई आशा नहीं। हमें तुनकमिजाज नहीं बनना चाहिए और सूझबूझको एकदम तिलांजलि नहीं दे देनी चाहिए। किसीके लिए त्याग करनेका अर्थ उसपर अनुग्रह करना नहीं है। प्रेम-प्रदत्त न्यायका नाम त्याग और नियम-प्रदत्त न्यायका नाम दण्ड है। प्रेमीकी दी हुई वस्तु न्यायको मर्यादासे
  1. देखिए खण्ड २७, पृष्ठ ३६१–६३।