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क्या मैं अंग्रेजोंसे घृणा करता हुँ?
बहुत आगे जाकर भी हमेशा, जितना वह देना चाहता है, उससे कम होती है। क्योंकि वह और अधिक देने के लिए उत्सुक रहता है और उसे इस बातका अफसोस होता रहता है कि उसके पास देनेको और नहीं बचा। यह कहना कि हिन्दू लोग अंग्रेजोंकी तरह पेश आते हैं उनको बदनाम करना है। हिन्दू यदि चाहें भी तो ऐसा नहीं कर सकते और मैं कहता हूँ; खिदरपुरके मजदूरोंकी पशुताके बावजूद, हिन्दू और मुसलमान, दोनों एक ही नावमें बैठे हुए हैं। दोनोंकी अधोगति हो रही है। असलमें उनकी हालत प्रेमियों-जैसी है—उन्हें उस हालतमें आना ही होगा—वे चाहें या न चाहें।

ये भाई समझते हैं कि यह वाक्य लिखकर मैंने अंग्रेजोंके साथ भारी अन्याय किया है, क्योंकि वे कहते है कि इसमें जो निन्दा गभित है वह तमाम अंग्रेजोंपर लागू होती है। इस वाक्यका ऐसा अर्थ लगाया जा सकनेका मुझे दुःख है। मेरा यह आशय हरगिज नहीं था। मैं उन मित्रोंको इस बातका यकीन दिलाता हैं कि सन्दर्भसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मेरा उक्त कथन सारे अंग्रेज समाजपर लागू नहीं किया जा सकता। उदाहरणके लिए, उसे सी॰ एफ॰ एन्ड्रयूजपर लागू नहीं किया जा सकता, जिन्होंने भारतके लिए अपना सब कुछ अर्पित कर दिया है।

मुसलमानोंका इल्जाम यह था कि हिन्दू लोग मुसलमानोंको उसी तरह दबाने और गुलामीमें रखने की कोशिश कर रहे है जिस तरह कि अंग्रेज लोग हिन्दू और मुसलमान दोनोंको दबाकर गुलामीमें रखते आये हैं। इसमें उनका आशय निस्सन्देह अधिकांश हिन्दुओं और अंग्रेजोंसे था। उद्धत अंशमें मैंने यह दिखलानेकी कोशिश की थी कि यदि हिन्दू मुसलमानोंको दबाना चाहें भी तो उनके पास शक्ति नहीं है। यदि मेरी उक्ति एक वर्गके रूपमें सिर्फ उन अंग्रेजोंके लिए ही हो जो कि हिन्दुस्तानमें रहते हैं तो उन्हें इसपर आपत्ति नहीं है; सो इसलिए नहीं कि वे इस हदतक भी मेरी रायको ठीक मानते हैं, बल्कि इसलिए कि वे जानते है कि वर्षोंसे मेरी यही राय रही है; और इसलिए मेरे ऐसा कहनेपर उन्हें कोई ताज्जुब नहीं होता। पर उन्हें ताज्जुब इसलिए हआ कि उन्होंने समझा कि मेरी भर्त्सना तमाम अंग्रेजों और उन तीन पर भी लागू है जो कि ईमानदारीके साथ अपनी शक्ति-भर भारतकी सेवा करनेकी कोशिश कर रहे हैं। उनको लगा कि वह वाक्य घृणा और क्रोध से प्रेरित होकर लिखा गया है। सच बात तो यह है कि वह वाक्य लिखते समय मेरे मनमें न तो घृणा भाव था न रोष ही। मैं तो अब भी यही मानता हूँ कि उस वाक्यसे ऐसा अर्थ नहीं निकलता, लेकिन अगर निकलता हो तो यही कह सकता हूँ कि मैं अंग्रेजी भाषा लिखना नहीं जानता, क्योंकि वह मेरी मातृ-भाषा नहीं है और मैं स्वीकार करता हूँ कि उसकी बारीकियोंपर मेरा अधिकार नहीं हो पाया है। मैं मानता हूँ कि मैं दुनियाके किसी प्राणीसे घृणा कर ही नहीं सकता। एक दीर्घ संयम और साधनाके फल-स्वरूप मैंने कोई चालीस सालसे घृणा करना छोड़ दिया है। मैं जानता हूँ कि यह एक भारी दावा है, फिर भी मैं इसे पूरी नम्रताके साथ पेश करता हूँ। पर हाँ, मैं बदीसे, वह जहाँ कहीं हो अवश्य घृणा करता हूँ। मैं उस शासन-प्राणालीसे घृणा करता हूँ जिसे अंग्रेजोंने भारतवर्ष में