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१३. शैतानका जाल

एक उत्कट खादी-प्रेमीके पत्रका निम्नलिखित अंश पाठकगण चावसे पढ़ेंगे :

खादीमें मेरी आस्था है। इसके हेतुको में सूर्यके प्रकाशकी भाँति स्पष्ट देखता हूँ। यह जीवनमें सादगी भरती है और इस तरह उसे शुद्ध बनाती है। यह सेवा-सूत्रसे हमें गरीबोंके साथ जोड़ती है। गरीबीसे बचनेका यह एकमात्र उपाय है—उस गरीबीसे, जो इस राष्ट्रके शरीर और आत्माको घुनकी तरह खाती जा रही है; आत्माको इसलिए कि जहाँतक करोड़ों अशिक्षित लोगोंका सम्बन्ध है, स्वस्थ शरीरके बिना आत्माके विकासका प्रश्न ही नहीं उठता। जिन्होंने भोगको साध लिया हो और जो उसकी साधनामें लगे हुए हों, वे भले ही शरीरके बिना आत्माकी बात करें, लेकिन करोड़ों लोगोंके लिए शरीरके बिना आत्माकी बात करना एक विडम्बना-मात्र है। और अन्तमें, चरखेका एक बहुत बड़ा गुण यह है कि आज यूरोप जिन हिंसात्मक सामाजिक विस्फोटोंके कारण रक्तपात और उन्मादपूर्ण कृत्योंकी लीलास्थली बना हुआ है, उनसे बचनेका भी एकमात्र उपाय यही है। चरखा विशिष्ट वर्गों और जनसाधरणको जोड़नेवालो कड़ीका काम करता है। और जबतक यह साधन भारतको स्वीकार है तबतक बोलशेविज्म और ऐसे ही अन्य हिंसात्मक विस्फोट इस देशमें असम्भव हैं। इन बातोंको देखते हुए मुझे सहज ही मानना पड़ता है कि चरखा एक अत्यन्त आवश्यक चीज है। लेकिन कठिनाई सिर्फ एक है। क्या यह चल सकता है? क्या यह सफल हो सकता है? क्या हम एक बार फिर चरखेको घर-घरमें उसका पुराना पवित्र स्थान दिला सकते हैं? क्या अब बहुत देर नहीं हो चुकी? आपके जेल जानेसे पहले मैं ऐसे प्रश्न कदापि नहीं करता। तब आशा रखने की गुंजाइश थी। लेकिन, अब स्थिति उतनी आशाजनक नहीं रह गई है। बट्टैण्ड रसेल-जैसे व्यक्तिका कहना है कि उद्योगवाद प्रकृतिको एक शक्तिके समान है, और हम चाहें या न चाहें, अन्ततः भारतको भी इस युग-प्रवाहमें पड़ना होगा। हाँ, ऐसे लोग यह अवश्य कहते हैं कि हमें उद्योगवादका कुछ अपना समाधान ढूँढ़ना चाहिए। उनकी बातमें सचाई है। उद्योगवाद आज सारे संसारको प्लावित कर रहा है और इस प्लावनके बाद लोग अपना कुछन-कुछ समाधान ढूंढ रहे हैं। यूरोपको ही लीजिए। मैं नहीं मानता कि यूरोप ध्वस्त हो जायेगा। मानव-स्वभावमें मेरी पूरी आस्था है और देर-सबेर वह उसका समाधान ढूंढ ही लेगा। तब क्या भारत चाहकर भी सारे संसारसे अपनेको अलग रख सकता है? क्या वह प्रयत्न करके भी उद्योगवादको चपेटमें आनेसे बच सकता है?