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शिक्षकोंकी दशा

यूरोपके उदाहरण भारतकी परिस्थितियोंमें चारों कोने चुस्त नहीं बैठ सकते, क्योंकि यूरोपमें—और इसमें रूस भी शामिल है—भारतकी-जैसी परिस्थितियाँ नहीं है। इसलिए यदि यूरोपीय लेखक यूरोपके उदाहरणोंके बलपर कोई सामान्य निष्कर्ष निकाल लें तो एक खास सीमाके बाद उनसे हमें मार्ग-दर्शन नहीं मिल सकता। अतएव कोई जरूरी नहीं कि जो बात यूरोपपर लागू हो वह भारतपर भी ठीक ही बैठे। हम यह भी जानते है कि प्रत्येक राष्ट्रकी अपनी अलग-अलग विशेषताएँ होती हैं, अलग-अलग व्यक्तित्व होता है। भारतको भी अपनी अलग विशेषताएँ हैं, अपना अलग व्यक्तित्व है; और अगर हम उसकी अनेक व्याधियोंका सही उपचार ढूंढना है तो हमें उसकी विलक्षण विशेषताओंको ध्यान में रखकर ही कोई उपचार बताना होगा। मेरा है कि यूरोपके अर्थोंमें भारतका औद्योगीकरण करने की कोशिश करना एक असम्भव काम करनेकी कोशिश करना है। भारतने बहुतसे तूफान झेले हैं। यह सच है कि ऐसा हर झंझावात उसपर अपनी अमिट छाप छोड गया है, लेकिन तब भी उसने सर्वथा अप्रतिहत रहकर अपनी विशेषताको कायम रखा है। भारत दुनियाके उन चन्द राष्ट्रोंमें से है, जो स्वयं अक्षत रहे हैं और जिन्होंने अनेक सभ्यताओंका उत्थान और पतन देखा है। भारत विश्वके उन गिने-चुने राष्ट्रों में से है जिन्होंने अपनी कतिपय प्राचीन संस्थाओंको भी सुरक्षित रखा है, यद्यपि उनपर अन्धविश्वास और प्रमादकी काई जम गई है। लेकिन वह अबतक इस प्रमाद और अन्धविश्वाससे अपने-आपको मुक्त करनेकी अपनी सहज क्षमताका परिचय देता आया है। उसकी करोड़ों सन्तानोंके सामने जो भारी आर्थिक समस्या उपस्थित है उसे हल करनेकी उसकी क्षमतामें जितना ज्वलन्त विश्वास मुझे आज—और विशेषकर बंगालकी स्थितिका अध्ययन करके लौटने के बादसे है उतना पहले कभी नहीं रहा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ६–८–१९२५
 

१४. शिक्षकोंकी दशा

कुछ दिन हुए अखिल बंगीय शिक्षक संघकी ओरसे एक शिष्टमण्डल मुझसे मिला था। सदस्योंने मुझसे इस विषयमें सलाह देनेको कहा था कि शिक्षक अपनी दशा कैसे सुधार सकते हैं और देशके लिए किस तरह उपयोगी हो सकते हैं। उन्होंने यह स्वीकार किया कि अभी तो वे देशकी कोई खास सेवा नहीं कर रहे हैं। अपनी अवस्थाका वर्णन उन्होंने इन शब्दोंमें किया :

आजकल शिक्षकगण बहुत बड़ा व्यक्तिगत त्याग करके एक श्रेयहीन काम कर रहे हैं। वे विद्यार्थियों को ऐसी शिक्षा दे रहे है जिससे न कोई लाभ है और न जिसमें किसीको कोई रुचि है, हालांकि इसमें स्वयं शिक्षकोंका कोई दोष नहीं है। उन्हें मशीनकी तरह ऐसे पाठ्यक्रमके मुताबिक चलना पड़ता है, जिसमें न धार्मिक शिक्षाकी कोई व्यवस्था है और न नैतिक तथा व्यावसायिक

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