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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
प्रशिक्षण की ही। आज बंगालके लगभग ९०० स्कूलोंमें २०,००० शिक्षकोंके जरिये जो शिक्षा दी जा रही है, वह ऐसी एक परीक्षा-पद्धतिके भारसे दबी हुई है, जिससे सिर्फ रट-घोटकर दिमागमें कुछ बातें ठूँस लेने की प्रवृत्तिको ही बढ़ावा मिलता है। शिक्षकों को बहुत थोड़ो तनख्वाह दी जाती है, जिससे समाजमें उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है। शिक्षकों और स्कूलोंके अधिकारियों तथा शिक्षकों और अभिभावकोंके बीच अविश्वासको भावना व्याप्त है और उनमें अधिकांशतः एक-दूसरेके प्रति सहानुभूतिका अभाव ही दिखाई देता है। शिक्षामें शारीरिक प्रशिक्षणको व्यवस्था नहीं है और उसका माध्यम विदेशो भाषा है, जिससे राष्ट्रको शक्तिका बहुत अपव्यय होता है।

इन सारी बातोंके साथ-साथ शिक्षकगण इतना और कह सकते है कि इस शिक्षाने विद्यार्थियोंको निस्सत्व बना दिया है और उनमें खुद सोच-समझकर कुछ करने की शक्ति ही नहीं रह गई है। मैंने उन्हें इस सबका जवाब दिया और उस समय वे उससे सन्तुष्ट भी हो गये, लेकिन उन्होंने मुझसे यह वादा करा लिया कि मैं इन स्तम्भोंमें इस विषयपर लिखूँगा।

मेरे विचारसे, विदेशी शासन इस बुराईकी जड़ है और यह शासन स्वयं हम लोगोंके कारण टिका हुआ है। मैं जानता हूँ कि जबतक हम इस बुराईके मूल कारणका प्रतिकार नहीं कर लेंगे तबतक इस समस्यासे कभी नहीं निपट सकते। अगर सरकार अपनी हो तो शिक्षक अपनी बात मान्य करा ले सकते हैं। अपनी सरकारका मतलब होता है ऐसी सरकार जो इतनी ताकतवर कभी न हो सके कि शक्तिके बलपर बहुमतकी इच्छाओंका अनादर कर सके, अर्थात् ऐसी सरकार जो जनमतके प्रति जवाबदेह हो। आज बहुत-सी बातोंमें शिक्षकोंको जनमतका समर्थन प्राप्त है, लेकिन वे उस सत्ताके सामने असहाय है, जिसने अपने-आपको इतना शक्ति सम्पन्न कर रखा है कि वह भारतकी जनताकी ओरसे शारीरिक प्रतिरोधके लिए खड़े किये गये किसी भी संगठनका मुकाबला सफलतापूर्वक कर सकती है। दुनियाकी कोई भी सरकार उतनी गैर-जिम्मेदार नहीं, और जनताको भावनाकी उतनी उपेक्षा करके नहीं चलती, जितनी गैर-जिम्मेदार भारत सरकार है। वह भारतके करोड़ों स्त्री-पुरुषोंकी भावनाकी जबर्दस्त उपेक्षा करती चलती है। गोखले इस बातको समझते थे। इसीलिए उन्होंने जबतक स्वराज्य नहीं मिल जाता तबतक सब-कुछ छोड़कर पहले उसीके लिए प्रयत्न करने पर जोर दिया। लोकमान्य तो इस स्थितिसे इतने ऊब गये थे कि उन्होंने "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है," इस मन्त्रको भारतके एक कोनेसे दूसरे कोनेतक गुंजा दिया। उन्होंने स्वराज्यकी खातिर अपनी अध्ययन और दर्शनको रुचिको दबा दिया। देशबन्धुने इसी उद्देश्यके लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया। इसलिए जो लोग शिक्षकों-जैसी दशामें पड़े हुए है, उनके दुःखका इसके अलावा और कोई उपचार नहीं है कि स्वराज्य जल्दीसे-जल्दी प्राप्त किया जाये। अब सवाल यह है कि उसे प्राप्त कैसे किया जाये? मैंने उपाय बता दिया है और ऐसा माना जाता है कि देशने उसे अपना लिया है। इसमें एक ही परिवर्तन किया गया हैं। वह यह है कि आन्तरिक शक्तिके विकासके प्रयत्नके साथ