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शिक्षकोंकी दशा

साथ बाहरी प्रयत्न भी होना चाहिए—अर्थात् कौंसिलोंमें प्रवेश करके काम करना चाहिए। शिक्षक लोग इन सदनोंमें तो प्रवेश कर नहीं सकते और सक्रिय राजनीतिमें भी भाग नहीं ले सकते, लेकिन वे सब कात तो सकते ही हैं, या अगर चाहें तो कोई और श्रम कर सकते हैं। अगर वे खुद श्रम नहीं करते तो फिर विद्यार्थियोंसे भी इसकी अपेक्षा न रखें। मैंने चरखा इसलिये सुझाया कि इसमें निजी लाभके लिए नहीं, बल्कि अनुशासन सीखने और राष्ट्रके लाभके लिए सभीको लगाया जा सकता है। स्वराज्यका मतलब है सरकारी नियन्त्रणसे—चाहे वह विदेशी सरकारका नियंत्रण हो या राष्ट्रीय सरकारका—मुक्त होनेके लिए सतत प्रयत्न करते रहना। अगर स्वराज्य होनेपर भी लोग अपने जीवनके हर विषयकी व्यवस्थाके लिए सरकारके ही मुखापेक्षी बने रहेंगे तो वह स्वराज्य सरकार एक निस्सार चीज ही होगी। क्या शिक्षक लोग यह महसूस करते हैं कि विद्यार्थीगण, जो-कुछ वे स्वयं हैं, उसीके बृहत्तर संस्करण हैं? अगर उनमें पहलकी शक्ति, खुद सोच-समझकर कुछ करनेकी शक्ति, आ जायेगी तो विद्यार्थियोंमें भी वह शक्ति अवश्य आ जायेगी। बिना सोचे-समझे यन्त्रवत् शिक्षा देनेके कारण आजकी परीक्षा-प्रणाली और भी भार-रूप बन गई है। अभी पिछले ही दिनों में एक स्कूल देखने गया था। वहाँ एक विद्यार्थीने अपनी पुस्तकमें से पाटलिपुत्रके बारेमें पढ़कर सुनाया तो मैंने पूछा कि बताओ तो कि पाटलिपुत्र क्या है और कहाँ है। वह नहीं बता सका। यह न विद्यार्थीकी गलती थी, न सरकारकी। बेशक, यह शिक्षककी गलती थी। परीक्षा-प्रणालीके प्राणलेवा भारके बावजूद अगर शिक्षक चाहें तो अपने अध्यापनको दिलचस्प और प्रभावकारी बना सकते हैं। उच्चतर कक्षाओंमें शिक्षाका माध्यम अंग्रेजी अवश्य है, लेकिन इसके बावजूद शिक्षकोंकी इच्छा हो तो वे अपने विद्यार्थियोंकी मातृभाषाका भी ध्यान रख सकते हैं। कोई नियम उन्हें विद्यार्थियोंसे उनकी मातृभाषामें बात करनेसे तो रोकता नहीं है। सचाई यह है कि अधिकांश शिक्षक पारिभाषिक शब्दोंके देशी भाषामें पर्याय नहीं जानते, और इसलिए जब चर्चा किसी शास्त्रीय विषयपर होती है तो उन्हें विद्यार्थियोंको देशी भाषामें अपनी बात समझा पाना मुश्किल लगता है। हमें अपनी बातचीतमें अंग्रेजीके विशेषणों, क्रियाविशेषणों, बल्कि मुहावरोंका भी प्रयोग करनेकी गन्दी आदत हो गई है। इनका प्रयोग हम इसलिए करते हैं कि समझते हैं, इस तरह हम अपनी बातको अधिक वजन दे पाते हैं। अगर शिक्षक लोग चाहें तो वर्तमान प्रणालीकी बहत-सी बुराइयाँ तो वे खुद ही दूर कर सकते हैं।

वर्तमान प्रणालीके अधीन क्या-कुछ किया जा सकता है, मैंने इसके दिये जा सकने योग्य बहुत-से उदाहरणोंमें से कुछ-एक ही दिये हैं। इस प्रणालीकी बुराईको मैंने देखा और इसीसे मेरे मनमें असहयोगका खयाल आया था। लेकिन अभी तो पुनः असहयोग कर सकना लगभग असम्भव ही है। इसीलिए मैं कुछ ऐसी बातें सुझा रहा हूँ, जिन्हें कर दिखाना कुछ अर्थों में अधिक कठिन है। एक सामान्य व्यक्तिके लिए बुराईके बीच रहकर उसके प्रभावसे अछूता रह पाना, उससे भाग खड़े होने की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन है। शराबकी दुकानोंसे दूर रहकर तो संयमका निर्वाह बहुतसे