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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लोग कर सकते हैं, लेकिन इन अभिशप्त स्थानोंमें रहकर भी इनके प्रभावसे बचे रहनेवाले बिरले ही हो सकते हैं।

जो भी हो, शिक्षकोंने मुझसे सलाह मांगी है। मैं इतना ही कर सकता हूँ कि अपनी सलाह उनके सामने रख दूँ, ताकि जिसमें जितनी सामर्थ्य हो वह उस हदतक उसके अनुसार चल सके। लेकिन, दुर्भाग्यकी बात यह है कि शिक्षित भारतीय अध्यापनकार्य इसलिए नहीं करते कि उससे उन्हें प्रेम है, बल्कि इसलिए करते हैं कि उनके पास जीविका देनेवाला इससे अच्छा कोई दूसरा काम नहीं। बहुतसे लोग तो इस पेशेको, अपने मनके किसी बेहतर कामकी सीढ़ी मानकर अपनाते हैं। इस तरह शिक्षक लोग शुरूसे ही स्वयं अपने रास्तेमें रुकावट खड़ी कर लेते हैं। इसे देखकर आश्चर्य तो इस बातका होता है कि बहुत-से शिक्षकोंकी दशा जैसी है उससे और खराब क्यों नहीं है। निःसन्देह, सुसंगठित आन्दोलन करके वे अपनी आर्थिक स्थिति सुधार सकते हैं, लेकिन मुझे तो स्वराज्य सरकारके अधीन भी उनका वेतन-मान आजकी अपेक्षा बहुत ऊँचा हो, इसकी सम्भावना दिखाई नहीं देती। मैं इस प्राचीन आदर्शमें विश्वास रखता हूँ कि शिक्षक अध्यापनके कार्य के प्रति प्रेमके कारण यह कार्य करें और जीवन-यापनके लिए आवश्यक न्यूनतम आयसे सन्तोष करें। रोमन कैथोलिकोंने उस आदर्शको कायम रखा है और उन्हें दुनियाकी कतिपय उत्तम शिक्षक-संस्थाओंकी स्थापनाका श्रेय प्राप्त है। प्राचीन ऋषि लोग तो इससे भी अधिक करते थे। वे अपने शिष्योंको अपने परिवारका सदस्य बना लेते थे, लेकिन उन दिनों वे जो शिक्षा देते थे वह सर्वसाधारणके लिए नहीं थी। वे तो बस मनुष्यजातिके सच्चे शिक्षकोंका एक समुदाय तैयार कर देते थे। आम जनताको अपने-अपने घरोंमें, अपने-अपने पुश्तैनी पेशोंमें ही आवश्यक प्रशिक्षण मिल जाता था। उस कालके लिए यह आदर्श पर्याप्त था। लेकिन अब परिस्थितियाँ बदल गई हैं। आज तो चारों ओरसे सब लोग आग्रहपूर्वक लिखने-पढ़नेसे सम्बन्धित शिक्षाकी मांग कर रहे हैं। इस क्षेत्रमें जो सुविधाएँ विशिष्ट वोंको दी जाती रही हैं, उन्हींकी माँग सर्वसाधारण भी कर रहा है। यह कहाँ तक सम्भव है और कूल मिलाकर मानव-समाजके लिए कहाँतक लाभदायक है, इसकी चर्चा यहाँ नहीं की जा सकती। स्वयं ज्ञानार्जनकी इच्छामें कोई बुराई नहीं है। अगर इसे सही दिशा दी जाये तो इससे लाभ ही लाभ है। इसलिए जो अवश्यम्भावी है उससे बचनेका कोई उपाय सोचनेके लिए रुके बिना हमें उसका अच्छेसे-अच्छा उपयोग करना चाहिए। इच्छा करने-भरसे ऐसे हजारों शिक्षक नहीं मिल सकते और न वे भीख मांगकर जी ही सकते हैं। उन्हें बेतन देनेकी पक्की व्यवस्था होनी चाहिए फिर चूंकि हमें शिक्षकोंके एक बहुत बड़े समूहकी आवश्यकता होगी, इसलिए उन्हें उतना वेतन नहीं दिया जा सकता जितना कि उनके पेशेका महत्त्व देखते हुए दिया जाना चाहिए। अतः उन्हें उतना ही दिया जायेगा जितना दे सकने में राष्ट्र समर्थ होगा। हम जैसेजैसे विभिन्न पेशोंके तुलनात्मक महत्त्वको समझते जायेंगे, वैसे-वैसे उनके वेतनमें वृद्धिकी अपेक्षा रख सकते हैं। लेकिन, यह वृद्धि बहुत धीरे-धीरे ही होगी। इसलिए भारतमें पुरुषों और स्त्रियोंका एक ऐसा वर्ग तैयार होना चाहिए, जो देशभक्तिकी भावनासे