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भाषण : कृष्णनाथ कालेज, बहरामपुरमें

बल्कि संसारके शिष्ट नागरिक बनकर जीवन यापन किया जा सकता है। आप स्कूल और कालेज जिस बातके लिए आते हैं, वह बात दरअसल है चरित्र-निर्माण। विद्यार्थीजीवनके लिए जिस ऊँचेसे-ऊँचे आदर्शकी कल्पना की जा सकती है, वह आदर्श हमारे प्राचीन हिन्दू पूर्वजोंने, ऋषि-मुनियोंने प्रस्तुत किया है। उन्होंने विद्यार्थीके जीवनको संन्यासीके जीवनके समान बताया, और विद्यार्थियोंके मार्गदर्शनके लिए उन्होंने जो नियम बनाये, वे उतने ही कड़े हैं, जितने चतुर्थ आश्रम अर्थात् संन्यासके लिए बनायें गये नियम है। किसी संन्यासीसे संसारका पूरा अनुभव प्राप्त कर लेनेके बाद सम्पूर्ण ज्ञानसे सम्पन्न होनेके कारण जो-कुछ करनेकी अपेक्षा की जाती है, एक विद्यार्थीसे परम्परा तथा अपने आध्यात्मिक और सांसारिक गुरुके प्रति श्रद्धाके कारण ही स्वेच्छापूर्वक वह सब करनेकी आशा की जाती है। आप सांसारिक ज्ञान और दिव्य ज्ञानका भेद जानते हैं। वे सांसारिक आकांक्षा और सांसारिक ज्ञानका भी उपयोग आत्माके उत्थानके लिए करते थे, और जब वे सांसारिक विषयोंकी चर्चा करते थे, उस समय भी हमें आत्माके गूढ़ ज्ञानकी शिक्षा दिया करते थे। जिन्होंने उपनिषदोंका अध्ययन किया होगा वे तनिक भी हिचकिचाहटके बिना, मैं इस समय जो कुछ कह रहा हूँ, उसकी पुष्टि करेंगे। तो आप अपने मनसे पूछिए कि क्या आप संन्यासीका जीवन व्यतीत कर रहे हैं? क्या आप सब ब्रह्मचारी हैं?

अपनी बंगाल-यात्राके दौरान मैंने बंगालके विद्यार्थियोंके बारेमें बहुत-कुछ सुना है। उनमें से कुछ बातें आपके लिए श्रेयकी है, लेकिन कुछ अश्रेयस्कर भी हैं। मुझे बताया गया है कि अगर भारत-भरके नहीं तो कमसे-कम बंगालके औसत विद्यार्थीका जीवन तो विशेष शुद्ध नहीं ही है। वह अपना समय शुद्धतम साहित्यके अध्ययन नहीं लगाता है, बल्कि वह अपने अवकाशका समय भी ऐसी पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने में लगाता है, जिन्हें किसी भी अच्छे पुस्तकालय अथवा सभ्य व्यक्तिके बैठकखाने में नहीं होना चाहिए। मुझे नहीं मालूम कि यह बात कहाँतक सच है, लेकिन मैंने जो-कुछ कहा है, वह पढ़े-लिखे लोगोंसे, सुसंस्कृत व्यक्तियोंसे तथा इन्हीं कालेजोंमें पढ़कर निकले सज्जनोंसे सुना है। उनमें से कुछने मेरे सामने बंगालके विद्यार्थियोंके जीवनके इतना बुरे होनेपर बहुत दुःख प्रकट किया। उन्होंने मुझे बताया कि उनका चरित्र आम तौरपर लेकिन निश्चित रूपसे गिरता ही जा रहा है। मैं उम्मीद करता हूँ कि इस बातके लिए पर्याप्त आधार नहीं होगा और यह सच भी नहीं होगी तथा औसत विद्यार्थी उतना बुरा नहीं होगा जितना कि उसे बताया जाता है। यहाँ मुझे एक हिन्दू विधवा द्वारा आँखोंमें आँसू भरकर सुनाया गया एक किस्सा याद आ रहा है। उसके कई लड़कियाँ हैं, जिनमें से कुछ अभी अविवाहिता है। उसने मुझसे कहा कि अब मैं इन लड़कियोंका क्या करूँ। वे सबकी-सब शिक्षित है। उन्हें अच्छी शिक्षा देनेके लिए उसने कुछ भी उठा नहीं रखा है। मैंने उससे पूछा कि उन लड़कियोंकी उम्र क्या है। मेरे विचारसे तो वे अभी विवाह करने योग्य नहीं हैं। उनकी माताने कहा, "लेकिन मैं उन्हें ब्याहे बिना रह भी कैसे सकती हूँ? क्या आप मुझे कोई ऐसी जगह बता सकते हैं जहाँ मैं उन्हें छिपाकर रखू, जहाँ रखकर मैं यह समझूँ