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अहिंसाकी समस्या

निःशस्त्र रहकर अपने भयको दूर नहीं कर सकता तो वह अवश्य लाठी या उससे भी अधिक प्रभावकारी शस्त्रका अवलम्बन करे।

अहिंसा एक महाव्रत है। यह तलवारकी धारपर चलनेसे भी अधिक कठिन है। देहधारीके लिए उसका सोलहों आने पालन करना असम्भव ही माना जायेगा। उसके पालनके लिए घोर तपश्चर्याकी आवश्यकता है। तपश्चर्याका अर्थ है—त्याग और ज्ञान। जिसे जमीनके स्वामित्वका मोह है, वह अहिंसाका पालन नहीं कर सकता। किसानके लिए अपनी जमीनकी रक्षा किये बिना कोई चारा नहीं है। उसे जंगली जानवरोंसे उसकी रक्षा करनी ही पड़ेगी। जो किसान जानवरों अथवा चोर आदिको दण्ड देनेके लिए तैयार न हो, उसे हमेशा अपना खेत छोड़ देने के लिए तैयार रहना पड़ेगा।

अहिंसाधर्मका पालन करने के लिए मनुष्यको शास्त्र तथा रीति-रिवाजकी मर्यादाका पालन करना चाहिए। शास्त्र हिंसाकी आज्ञा नहीं देता; परन्तु प्रसंग-विशेषपर हिंसा-विशेषको अनिवार्य मानकर वह उसकी छूट अवश्य देता है। जैसा कि कहते हैं, 'मनुस्मृति' में अमुक प्राणियोंके वधकी अनुमति दी गई है। यह वध करनेकी आज्ञा नहीं है। उसके बाद चिन्तनमें और प्रगति हुई और तब यह तय हुआ कि कलिकालमें वह अपवाद न रहे। इसीलिए वर्तमान रिवाज अमुक हिंसाको क्षम्य मानता है और 'मनुस्मृति 'में जिन प्रसंगोंपर हिंसाकी अनुमति दी गई है, उन्हीं में से कई प्रसंगोंपर हिंसा करनेपर प्रतिबन्ध है। कुछ छूट शास्त्रोंने दे रखी है; उससे आगे बढ़नेकी। दलील स्पष्टतः गलत है। संयममें धर्म है, स्वच्छन्दतामें अधर्म। जो मनुष्य शास्त्रकी दी हुई छूटसे लाभ नहीं उठाता, वह धन्यवादका पात्र है। संयमकी कोई सीमा नहीं है, इसलिए अहिंसाकी भी कोई सीमा नहीं है। संयमका स्वागत दुनियाके तमाम शास्त्र करते हैं। स्वच्छन्दताके विषयमें शास्त्रोंमें भारी मतभेद है। समकोण सब जगह एक ही प्रकारका होता है। दूसरे कोण अगणित है। अहिंसा और सत्य समस्त धर्मोके समकोण है। जो आचार इस कसौटीपर खरा न उतरे वह त्याज्य है। इसमें कोई भी शंका नहीं कर सकता। अधुरे आचारकी इजाजत चाहे हो, किन्तु अहिंसा-धर्म पालन करनेवालेको तो निरन्तर जागरूक रहकर अपने हृदय-बलको बढ़ाते और प्राप्त छूटोंके क्षेत्रको संकुचित करते ही जाना चाहिए। भोगमें धर्म है ही नहीं। संसारका ज्ञानपूर्वक त्याग ही मोक्षप्राप्ति है। संसारका पूर्ण त्याग हिमालयके शिखरपर चले जानेमें भी नहीं है। हृदयकी गुफा सच्ची गुफा है। उसमें छिपकर और सुरक्षित रहता हुआ मनुष्य संसारमें रहते हुए भी उससे निर्लिप्त रहकर अनिवार्य प्रवृत्तियोंमें भाग लेते हुए विचरण कर सकता है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ९–८–१९२५