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कुछ बहुत कीमती है और कुछ बहुत सुन्दर। मालिक महलके सामने आँगनमें जो भी भिक्षुक वहाँ आयें उन सबको खाना खिलाते है। मुझे बताया गया कि उनकी संख्या प्रति दिन कई हजार होती है। बेशक, यह राजसी दान है। इससे दाताओंकी परोपकारवृत्ति प्रगट होती है, जो प्रशंसनीय है। परन्तु एक तरफ भिक्षान्नसे अपना पेट भर रहे ये बेहाल भिखारी और दूसरी तरफ मानो उनकी दुर्दशाका उपहास करते हुए खड़ा वह शानदार महल, इन दोनोंके बीचकी असंगति दाताओंको जरा भी नहीं खटकती‌! ऐसा ही एक और दुःखद दृश्य मुझे, जब मैं श्रयुड़ी गया था तो वहाँ देखनेको मिला था। वहाँ स्वागत-समितिने जिलेके भिखारियोंको भोजन करानेकी व्यवस्था की थी। 'मारबल पैलेस' में मुझे घेरकर मेरे साथ-साथ जो भीड़ चल रही थी, वह जमीनपर बिछाई हुई मैली पत्तलोंपर खा रहे भिखारियोंकी पंक्तिके बीचसे होकर गुजर रही थी। कुछ लोग तो उन पत्तलोंको लगभग कुचलते हुए चल रहे थे। यह कोई सुख सुखद दृश्य नहीं था। श्रयुड़ीमें जरा अधिक सभ्य व्यवस्था थी, क्योंकि भीड़को भिखारियोंकी पंक्तिसे होकर नहीं गुजरना था। परन्तु जो मोटर गाड़ी मुझे मेरे स्थानपर ले गई थी, उसे खाना खाते हुए भिखारियोंकी पंक्तिके बीचसे धीरे-धीरे ले जाया गया था। मैं बहुत लज्जित हुआ, इस कारणसे तो और भी कि वह सब मेरे सम्मानमें किया या था; और जैसा वहाक एक मित्रने बताया, इस खयालसे किया गया था कि में 'दीनोंका हितु' हूँ। अगर मैं मानव-समाजके एक बड़े हिस्सेके इस तरह भिखारी बनाये जानेपर सुख-सन्तोषका अनुभव करूँ तो निश्चय ही मेरी यह दीन-हितकी भावना बहुत घटिया चीज है। मेरे मित्रोंको यह नहीं मालूम कि भारतके कंगालोंके हितकी भावनाने मुझे इतना कठोर-हृदय बना दिया है कि उनके बिलकुल भिखारी बना दिये जानेकी अपेक्षा उनके भूखों मर जानेकी बात मैं ज्यादा बेफिक्रीसे सोच सकता हूँ। मेरी अहिंसा किसी ऐसे तन्दुरुस्त आदमीको मुफ्त खाना देनेका विचार बरदाश्त नहीं करेगी, जिसने उसके लिए कोई ठीक ढंगका काम न किया हो; और मेरा वश चले तो जिन सदाव्रतोंमें मुफ्त भोजन मिलता है, वे सब सदाव्रत मैं बन्द कर दूं। इससे राष्ट्रका पतन हुआ है और सुस्ती, बेकारी, ढोंग, बल्कि अपराधोंको भी प्रोत्साहन मिला है। इस प्रकारका अनुचित दान देशको न कोई भौतिक लाभ पहुँचाता है और न आध्यात्मिक लाभ ही, और दाताके मनमें पुण्यात्मा होनेका झूठा भाव पैदा करता है। क्या ही अच्छी और बुद्धिमानीकी बात हो, यदि दानी लोग ऐसी संस्थाएँ खोलें जहाँ उनके लिए काम करनेवाले स्त्री-पुरुषोंको स्वच्छताके साथ स्वास्थ्यप्रद भोजन दिया जाये। मेरा अपना विचार तो यह है कि चरखा या कपाससे सम्बन्धित क्रियाओंमें से कोई भी क्रिया इस दृष्टिसे आदर्श होगी। परन्तु उन्हें यह स्वीकार न हो तो वे कोई भी दूसरा काम चुन सकते हैं। जो भी हो, नियम यह होना चाहिए कि "मेहनत नहीं तो खाना भी नहीं।" ऐसा कोई भी नगर नहीं, जिसके सामने भिखमंगोंकी कठिन समस्या न हो; और इसके लिए जिम्मेदार है पैसेवाले लोग। मैं जानता हूँ कि निठल्लोंको मुफ्त भोजन करा देना बहुत आसान है, परन्तु ऐसी किसी संस्थाको संगठित करना बहुत कठिन है, जहाँ किसीको खाना पानेके लिए कोई ठीक ढंगका काम अवश्य