उन चायघरों या भोजन-गृहोंको परवाने लेनेके लिए बाध्य करनेका अधिकार दिया गया है, जिनका उपयोग सम्भवतः केवल एशियाई लोग करते हैं। हमारा खयाल है, इसके लिए ट्रान्सवालके एशियाइयोंको कुछ चीनी दूकानदारोंको धन्यवाद देना चाहिए। ये चीनी भोजन-गृह खोलनेके लिए तो उतावले थे, परन्तु इन्हें यह पता नहीं था कि उनके लिए परवाना लेनेकी आवश्यकता नहीं है। इन्होंने सरकारको प्रार्थनापत्र दिया कि उन्हें भोजन-गृह खोलनेकी सुविधाएँ दी जायें। सरकारने इनके साथ वही सलूक किया जिसके वे लायक थे। अब सब एशियाई भोजन-गृहोंके मालिकोंको छोटे-छोटे उपाहार-गृहों तक पर नगरपालिकाओंके नियन्त्रणका मजा चखना पड़ेगा। सफाईके विचारसे नगरपालिकाके नियन्त्रणकी बात हम समझ सकते हैं, और उसका स्वागत भी करते हैं; परन्तु जहाँतक ब्रिटिश भारतीयोंका सम्बन्ध है, जो रोजगार मुश्किलसे लाभप्रद हो सकते हैं उनके लिए भी परवानेकी शर्त रखना सर्वथा अनुचित है। परन्तु ब्रिटिश भारतीय भी तो एशियाई हैं; इसलिए ट्रान्सवाल सरकारका तर्क यह है कि यदि ४५,००० चीनियोंकी भोजन-व्यवस्था करनेवाले भोजन-गृहोंपर परवाना लेनेका नियम लागू किया जाता है तो १२,००० भारतीयोंके भोजन-गृहोंपर वह क्यों न लागू किया जाये? उसे यह नहीं सूझा कि भारतीय भोजन-गृह हैं ही बहुत कम, क्योंकि उनके रीति-रिवाज ऐसे हैं कि उन्हें भोजन- गृहोंकी आवश्यकता नहीं पड़ती। निश्चय ही वे इतने कम है कि उनकी ओर अबतक किसीका ध्यान नहीं गया था।
इसके अतिरिक्त, राजस्व-परवाना अध्यादेश है। उसके अनुसार फेरीवाले और ठेलोंपर सौदा बेचनेवाले लोग परवानोंके अधिकारी तभी हो सकेंगे, जब पहले वे मजिस्ट्रेटों, शान्ति- रक्षक न्यायाधिकारियों (जस्टिस ऑफ द पीस) या पुलिस अधिकारियोंसे प्रमाणपत्र प्राप्त कर लेंगे। अपवाद केवल उन लोगोंके लिए होगा जिनके पास पहलेसे परवाने होंगे, परन्तु इन भाग्यवान् लोगोंको भी यह सुविधा तभी मिलेगी जब वे अपने परवाने मियाद खत्म होनेसे पहले चौदह दिनके भीतर अपने जिलेके राजस्व अधिकारियोंको सौंप देंगे।
जोहानिसबर्गके भूमि अध्यादेशके अनुसार,
लेफ्टिनेंट गवर्नर इस अध्यादेशके साथ सलग्न अनुसूचीमें वर्णित किसी भी भूमिको जोहा- निसवर्ग नगरपालिकाको परिषदको दे देता है तो वैसा करना कानून-सम्मत माना जायेगा, बशर्ते कि यह भूमि इस प्रकारसे, और ऐसी शर्तोंपर दी जाये जिस प्रकारसे, और जैसी शतों- पर नगरपालिका परिषद देना उचित समझे; और उस भूमिमें किसी व्यक्तिका उस समय कोई अधिकार हो तो उसका ध्यान रख लिया जाये।
जिन भूमियोंपर इसका प्रभाव पड़ेगा उनमें जोहानिसबर्गकी मलायी बस्ती भी है। यह बस्ती बारह वर्षसे या इससे भी अधिक समयसे वहाँ बसी है। इसके विरुद्ध, इसके निवासियोंकी आदतों या इसकी स्थितिके कारण, कभी किसीने कोई आपत्ति नहीं उठाई। युद्धसे पहले विभिन्न ब्रिटिश एजेंटोने, जो यहाँ सरकारका प्रतिनिधित्व करते थे, इस बस्तीके निवासियोंमें सुरक्षाको भावना उत्पन्न कर दी थी, और इसीलिए उन्होंने वहाँ पक्के मकान बना लिये थे। परन्तु कानूनी दृष्टिसे वहाँ उनका अधिकार केवल मासिक किरायेदारके रूपमें है। अब यदि यह कल्पना की जाये कि उनको वहाँसे हटा दिया जायेगा तो प्रश्न यह उठता है कि उन्हें मुआ- वज्ञा क्या मिलेगा? हम यहाँ यह जिक्र किये बिना नहीं रह सकते कि फ्रीडडॉर्पके एक भाग और दूसरे भागमें अत्यन्त ईाजनक भेद-भाव किया गया है। क्योंकि यह सारी मलायी बस्ती फ्रीडडॉर्पका भाग है। जिस भागमें पुराने गरीब यूरोपीय नागरिक रहते हैं उसके साथ सरकारने