युद्धके कारण विघ्न आ गया। वह इस लड़ाईमें फंस गया। उसकी फौज अप्रशिक्षित और कम थी, फिर भी उसकी प्रतिष्ठा सैनिकोंमें इतनी अधिक थी कि वे प्रसन्नतापूर्वक उसके अनुशासनमें रहे । इस लड़ाईमें मनरो इतना अधिक व्यस्त रहा और उसने अपने शरीरको इतना अधिक कष्ट दिया कि उसका स्वास्थ्य गिर गया। इसलिए वह १८१९ में लड़ाई समाप्त होते ही फिर इंग्लैंड लौट गया। १८२० में उसको सरका खिताब दिया गया और वह मद्रास इलाकेका गवर्नर बना कर भेजा गया। इस पदपर वह अपनी मृत्युके दिन तक रहा। वह जितना कठिन श्रम अपने छोटे पदपर किया करता था उतना ही कठिन गवर्नर बन जानेके बाद भी करता रहा। तब भी उसकी सादगी पहले जैसी ही थी। वह स्वयं अकेला ही टहलने निकल जाता था और जो कोई उससे मिलना चाहता उससे मिलता था। जब कभी मौका मिलता तब भारतीयोंको अधिकारी नियुक्त करता और आगे बढ़ाता। सन् १८२७ में यह भला गवर्नर हैजेकी बीमारीसे चल बसा। उसने कभी अपने स्वार्थपर निगाह नहीं रखी। उसका अपना फर्ज क्या है और वह किस तरह अदा किया जाये, उसने सदा इसीपर ध्यान दिया। उसको भारतीयोंसे बहुत प्रेम था और उसका सबसे सही खिताब था " रैयतका दोस्त"। ऐसे सीधे-सादे और रहमदिल अंग्रेज पहले जमानेमें हो गये और अब भी निकल आते हैं, इसीसे बहुत-से दोष होनेपर भी अंग्रेजी राज्यका सितारा जगमगाता रहता है।
१३८. दुःखद प्रसंग
जेल-सुधार आयोग (प्रिजन्स रिफॉर्म कमिशन) की कार्रवाईके कारण नेटालकी कुछ जाय- दादोंमें गिरमिटिया भारतीयोंकी दशाके विषयमें अनेक आशंकाएँ उत्पन्न हो गई है। 'ट्रान्सवाल लीडर में प्रकाशित रायटरके एक तारमें बतलाया गया है कि हालमें, वेरुलममें जेल-अधिकारियोंने इस आशयकी गवाही दी है कि कुछ जायदादें, जो भारतीयोंको बड़ी संख्यामें नौकर रखती हैं, अपने कुलियोंके बीमार हो जानेपर उन्हें किसी छोटे अपराधके लिए दण्डित करवा देती हैं, जिससे कि उनका इलाज सरकारी खर्चपर हो जाये और वे अच्छे होकर कामपर लौटें। यह आक्षेप सुनने तक में इतना अमानुषिक और अविश्वसनीय लगता है कि इसे यदि किसी बाहरी व्यक्तिने लगाया होता तो उसे निश्चय ही फटकारके साथ अदालतसे बाहर निकाल दिया जाता। हम स्वयं इसपर विश्वास करना नहीं चाहते, परन्तु जिन्होंने यह गवाही दी है उन्होंने अपनी जिम्मेवारी अच्छी तरह समझकर ही वैसा किया होगा। हम तो यह मानकर चलते हैं कि उन्होंने तथ्योंका वर्णन बढ़ाकर करनेके बजाय कुछ घटाकर ही किया होगा। यह मामला इतना संगीन है कि इसे जहाँका-तहाँ नहीं छोड़ा जा सकता। और यह भी गम्भीर बात है कि नेटालको जनताको पहले-पहल इतने संगीन आक्षेपका समाचार अपनी सीमाओंके बाहरसे मिला है। हमारा खयाल है कि नेटालके सब समाचारपत्र इस मामले में चुप्पी साधे रहे; केवल 'नेटाल मयुरी'ने अपनी एक संपादकीय टिप्पणीमें वेरुलम जेलमें ऐसी चौंका देनेवाली अवस्था होनेकी चर्चा की। आयोगकी रिपोर्टके प्रकाशित होनेमें साधारण समय लगेगा ही। तबतक हमें प्रतीक्षा करके ही सन्तुष्ट रहना पड़ेगा। उससे पहले हम ठीक-ठीक नहीं जान सकेंगे कि गवाही क्या थी।