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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 5.pdf/१५८

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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हमने कहा है, हमें विश्वास नहीं कि इस आक्षेपको सत्य सिद्ध किया जा सकता है। परन्तु इसे कुछ असम्भावित मानते हुए भी हम उन भयंकर बातोंको नहीं भूल सकते जिन्हें लगभग चालीस वर्ष पूर्व ब्रिटिश गियानामें गिरमिटिया भारतीयोंके प्रति व्यवहारके सम्बन्धमें एक आयोगने प्रगट किया था। तब सिद्ध हो गया था कि इससे भी कहीं अधिक अमानुषिक और अविश्वसनीय बातें हुई थी, और वे भी केवल एक-आध अपवादके रूपमें नहीं। खासकर बीमार भारतीयोंके साथ विशेष बुरा बरताव किया जाता था, यद्यपि उनकी रक्षाके लिए बहुत अच्छे कानून बने हुए थे। जब हम सोचते हैं कि बीमार गिरमिटिया भारतीय अपने मालिकपर निरा बोझा हो जाता है तब यह बात कुछ-कुछ समझमें आने लगती है। आशा है कि स्वयं जायदादोंके मालिक, बदनामीसे बचनेके लिए, इस मामलेकी पूरी-पूरी जाँच की जानेपर जोर देंगे। यह आक्षेप यदि सत्य सिद्ध हो जाये तो भी यह उचित नहीं कि एक या दो व्यक्तियोंके दुष्कर्मोके कारण उन सबकी भी बदनामी हो, जिनका उद्देश्य अपने असहाय गिरमिटिया कर्म- चारियोंके साथ केवल न्यायोचित ही नहीं, बल्कि अच्छा बरताव करनेका रहता है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ४-११-१९०५


१३९. फूट डालो और राज करो

इस लेखका शीर्षक एक कहावत है, जो पहाड़ों जैसी पुरानी है। जो नीति इस कहावतसे प्रकट होती है उसका श्रीगणेश भारतपर ब्रिटिश शासनके प्रसंगमें एक ब्रिटिश राजनीतिज्ञने किया था। हालमें, भारतसे आया हुआ जो तार समाचारपत्रोंमें प्रकाशित हुआ है, उससे इस कहावतका मतलब भली भाँति समझमें आ जाता है। बतलाया गया है कि बंग-भंगसे बने नये प्रान्तकी राजधानी ढाकामें बीस हजार मुसलमानोंने इकट्ठे होकर विभाजनके लिए, और उसके फलस्वरूप हिन्दुओंके अत्याचारसे मुक्ति पा जानेके लिए खुदाकी इबादत की और उसका शुक्र माना। हमें विश्वास नहीं होता कि यह आन्दोलन अनायास ही हुआ होगा। यह देखने में ही भोंड़ा है। यदि मान भी लिया जाये कि हिन्दुओंकी ओरसे कोई अत्याचार होता था तो प्रान्तका विभाजन किये बिना भी उससे राहत मिल सकती थी; क्योंकि एक सम्प्रदायको दूसरेसे बचानेके लिए ब्रिटिश राज्यकी शक्ति वहाँ मौजूद थी। इसलिये हमारा खयाल है कि यह सब बंग-भंगके विरुद्ध चलते हुए अत्यन्त प्रबल आन्दोलनका जवाब देनेके लिए किया गया है। बहिष्कार अभूतपूर्व तीव्रताके साथ फैला है। वह खास और आम, दोनों समाजोंमें घुस चुका है; और यदि काफी समय तक चलता रहा तो बंगालके समस्त सम्प्रदायोंको मिलाकर एक कर देगा; मुसलमान भी अलग नहीं रहेंगे। इस कारण, जिन लोगोंका ऊपर उद्धृत कहावतमें विश्वास है उन्हें स्वभावतः ही किसी काटकी तलाश हुई; और उन्होंने उसे ढाकाके थोड़ेसे मुसलमानोंमें पा लिया। करोड़ों मनुष्योंपर शासन करनेके लिए, एक जातिको दूसरीके विरुद्ध खड़ा कर देनेका सिद्धान्त राजनीतिक कूपमण्डूकता है। हम जानते हैं कि ऐसे सुझावका तीव्र विरोध किया जायेगा। हम यह भी जानते हैं कि शुद्ध ब्रिटिश राजनीति इस विचारके विरुद्ध विद्रोह करेगी। परन्तु साथ ही, इस नीतिकी जड़ें बहुत गहरी हैं, इसपर चलकर पहले अस्थायी सफलता प्राप्त की जा चुकी है, और ढाकाका तमाशा इसका विस्तारमात्र है। यदि आंग्ल- भारतीय शासक, जिन्होंने वास्तव में भारतीय-साम्राज्यका निर्माण किया और जिनका विश्वास था कि यह जनताकी सद्भावनाके सहारे स्थायी हो जायेगा, आज अपनी कब्रोंसे उठकर खड़े हो जायें,