तो इसमें असाधारण बात कुछ नहीं है। हमारा निवेदन है कि यदि ऐसे बच्चोंको, जिन्हें अबतक छेड़ा नहीं गया था, देशसे निकाल दिया गया या उपनिवेशमें प्रविष्ट नहीं होने दिया गया तो यह बहुत गम्भीर अन्याय होगा। इसके अतिरिक्त, सरकार चाहती है कि जो भारतीय यहाँ रहते हैं उनकी सम्बन्धिनी स्त्रियोंको भी पुरुषोंके समान ही पंजीकृत किया जाये। ब्रिटिश भारतीय संघने इस प्रकारकी कार्रवाइयोंका तीव्र प्रतिवाद किया है, और यहाँ तक कहा है कि हम इस प्रश्नपर अदालत तक में लड़नेको तैयार हैं, क्योंकि हमें सलाह दी गई है कि यहाँके निवासी भारतीयोंकी पत्नियोंको अपना नाम पंजीकृत कराने और ३ पौंड देनेकी आवश्यकता नहीं है।
खास मुनीमों आदिका प्रवेश
किसीको कितनी ही आवश्यकता क्यों न हो, सरकार नये अनुमतिपत्र नहीं देती। हम सब समाचारपत्रोंमें परमश्रेष्ठकी यह दृढ़ घोषणा पढ़कर अत्यन्त प्रसन्न हुए थे कि जो भारतीय पहलेसे इस देशमें बसे हुए हैं उनके निहित अधिकारोंको छेड़ा या छुआ न जाये। बहुत-से व्यापा- रियोंको अपना व्यापार चलानेके लिए विश्वस्त मुनीम आदि निरन्तर भारतसे बुलाते रहना पड़ता है। यहाँ बसी हुई आबादीमें से विश्वस्त आदमियोंको चुनना सरल नहीं होता। सभी स्थानों और जातियोंके व्यापारियोंका अनुभव यही है । इसलिए यदि, जबतक प्रातिनिधिक शासन स्थापित नहीं हो जाता तबतक, नये भारतीयोंके लिए देशका द्वार बन्द रखा जायेगा तो यह कार्रवाई निहित अधिकारों में भारी हस्तक्षेप होगी। यह भी समझमें नहीं आता कि योग्य और शिक्षित व्यक्तियोंको, उनके शरणार्थी होने-न-होनेका विचार किये बिना, प्रार्थनापत्र देनेपर अनुमतिपत्र क्यों न दिया जाये। इन सब कठिनाइयोंके बावजूद, हमारे भारतीय-विरोधी मित्र यह कहते कभी नहीं थकते कि जो ब्रिटिश भारतीय ट्रान्सवालमें कभी नहीं रहते थे उनकी देशमें बाढ़ आ गई है। उनको यह कहनेकी आदत-सी पड़ गई है कि जो कोई भी भारतीय देशमें पहले मौजूद था वह पंजीकृत किया जा चुका था। मुझे इस प्रश्नपर अधिक कहनेकी आवश्यकता नहीं जान पड़ती, क्योंकि परमश्रेष्ठको यह पहले बतलाया जा चुका है कि इस आक्षेपके सम्बन्धको सब बातें झूठी हैं। परन्तु १८९३ के एक मामलेका जिक्र करनेके लिए परमश्रेष्ठ मुझे क्षमा करें। शायर और ड्यूमा मजदूरोंके दो बड़े ठेकेदार थे। एक बार वे देशमें ८०० भारतीय मजदूर एक साथ लाये थे। और कितनोंको वे लाये, मुझे मालूम नहीं। उस समयके सरकारी न्यायवादीने जोर दिया कि उन सबको पंजीकरणका प्रमाणपत्र लेना और ३-३ पौंड देना चाहिए। शायर और ड्यूमाने इस बातका उच्च न्यायालयमें परीक्षण किया। उस समयके मुख्य न्यायाधीश श्री कौट्ज़ने फैसला दिया कि कानूनके अनुसार इन आदमियोंको ३ पौंड देनेकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ये "व्यापार करने के लिए" यहाँ नहीं आये; और यदि ये आदमी ठेकेकी मियाद खतम होनेके बाद यहीं रह गये तो भी मैं सरकारको सहायता नहीं कर सकूँगा। यह तो केवल एक उदाहरण है, जिसका खण्डन नहीं किया जा सकता। इसमें सैकड़ों भारतीय ३-३ पौंड दिये बिना इस देश में रह गये थे। ब्रिटिश भारतीय संघ निजी अनुभवके आधारपर बराबर यह कहता रहा है कि सैकड़ों भारतीय, जिन्होंने व्यापार करनेके परवाने नहीं लिए, अपने-आपको बिना पंजीकृत कराये और बिना ३-३ पौंड दिये ही देशमें रह गये थे।
बाजार और बस्तियाँ
अब मैं १८८५ के कानून ३ पर आता हूँ। बहुधा कह दिया जाता है कि इस देशमें ब्रिटिश सरकारकी स्थापनाके पश्चात् भारतीयोंको व्यापारके परवानोंके विषयमें रियायत मिल गई है। परन्तु यह बात सत्यसे जितनी दूर है उतनी और कोई नहीं हो सकती। युद्धसे पहले, हम केवल