ये व्यापारी अनुमतिपत्र अधिकारीको यह तसल्ली दे सकें कि उन्हें ऐसे व्यक्तियोंकी सेवाओंकी आवश्यकता है।
और (ङ) शिक्षित भारतीयोंको, प्रार्थनापत्र देनेपर, उपनिवेशमें आनेकी अनुमति मिलनी चाहिए।
१८८५ का कानून ३ और शान्ति-रक्षा अध्यादेश इन दोनों कानूनोंको तथा ब्रिटिश भारतीयोंपर असर डालनेवाले अन्य रंग सम्बन्धी कानूनोंको, जितनी जल्दी हो सके, रद कर देना चाहिए। और उन्हें निम्नलिखित बातोंके बारेमें आश्वासन दिया जाना चाहिए:
(क) जमीन-जायदाद रखनेका उनका अधिकार।
(ख) उपनिवेशके स्वास्थ्य-सम्बन्धी आम कानूनोंका खयाल करते हुए वे जहाँ चाहें रह सकें।
(ग) किसी भी प्रकारके विशेष शुल्ककी अदायगीसे छूट।
और (घ) आम तौरपर विशेष कानूनोंसे मुक्ति तथा नागरिक अधिकारों एवं स्वतंत्रताका उसी हद तक उपभोग जिस हद तक कि दूसरे उपनिवेशी करते है। यद्यपि ब्रिटिश भारतीय संघ यूरोपीय निवासियोंकी इस आशंकासे सहमत नहीं कि भारतसे होनेवाले अबाध आव्रजनसे वे संकटमें पड़ जायेंगे, फिर भी उनके साथ मेल-जोलसे काम करने तथा सौहार्द्र स्थापित करनेकी सच्ची भावनासे उसने सदैव यह निवेदन किया है:
(क) शान्ति-रक्षा अध्यादेशकी जगह केप या नेटालके आधारपर एक साधारण प्रवासी- कानून बनाया जाये, बशर्ते कि शैक्षणिक कसौटी महान भारतीय भाषाओंको मान्यता दे दे और ऐसे लोगोंको जिनकी जरूरत व्यापारमें पहलेसे ही जमे भारतीय व्यापारियोंको हो, निवास-सम्बन्धी अनुमतिपत्र देनेका अधिकार सरकारको दे दिया जाये।
(ख) एक ऐसा साधारण विक्रेता-परवाना कानून पास किया जाये जो समाजके सभी वर्गोपर लागू हो और जिसके द्वारा नगर-परिषदें या स्थानिक निकाय नये व्यापारिक परवाने देनेपर नियन्त्रण रख सकें; बशर्ते कि इस प्रकारकी परिषदों या स्थानिक निकायोंके निर्णयोंकी समीक्षाके लिए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करनेका अधिकार हो। इस कानूनके अन्तर्गत, एक ओर तो, केवल उस हालतको छोड़कर जब कि मकान या दुकान स्वच्छ अवस्थामें न हो, तत्कालीन परवानोंका संरक्षण होगा और दूसरी ओर नये परवानेके लिए नगर-परिषदों या स्थानिक निकायोंकी स्वीकृति लेनी पड़ेगी। फलतः परवानोंकी अभिवृद्धि प्रायः उपर्युक्त संस्थाओं- पर निर्भर करेगी।