हो चुके हैं, वे अपने माता-पिताके, जिनमें से अनेकको स्वयं अक्षरज्ञान तक नहीं है, विशेष ऋणी है। अब प्रश्न यह है कि ये शिक्षित युवक इसकी एवजमें अपने उन देश-भाइयोंके लिए क्या करेंगे जिन्हें शिक्षा और संस्कृति और उन सब बातोंकी जरूरत है जिनकी अभिव्यक्ति इन दो शब्दोंसे होती है? हम इस सचाईको चर्चा पहले भी कर चुके हैं कि भारतीय युवकोंकी शिक्षा बहुत उपेक्षित है। जो थोड़ा-बहुत किया जा रहा है, वह ईसाई पादरियों द्वारा। दक्षिण आफ्रिकी सरकारोंकी सहायता उसमें आंशिक ही है। एक भी महत्त्वपूर्ण स्कूल ऐसा उपलब्ध नहीं है जो पूर्णतया भारतीयों द्वारा चलाया जा रहा हो। यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें हमें यह आशा करनेका अधिकार तो है ही कि सरकार पहले कदम उठाये, परन्तु हम अपने पैरोंपर खुद भी खड़े हो सकते हैं। यह केवल धनका प्रश्न भी नहीं है। प्रथम आवश्यकता तो है पर्याप्त संख्यामें ऐसे आत्मत्यागी युवकोंकी जो शिक्षाके कामके लिए निष्काम भावसे अपने आपको अर्पित करें। हमें यह शर्त एक अनिवार्य शर्त जान पड़ती है। यूरोपीय जगतमें रोमन कैथलिकोंमें सर्वोत्तम शिक्षक उत्पन्न हुए हैं, क्योंकि ये शिक्षक न तो वेतन लेते हैं और न लेनेकी आशा करते हैं। बर्मी बालकोंको बर्मी विचारोंके अनुसार पूर्ण शिक्षा मिलती है, क्योंकि उनके शिक्षक स्वयंसेवक होते हैं। प्राचीन भारतमें भी इसी नियमका पालन किया जाता था; और आज भी गाँवकी पाठशालाके गुरु गरीब ही होते हैं। प्रोफेसर गोखले और परांजपे पूनाके जिस फर्ग्युसन कॉलेजके ऐसे ज्योतिर्मय नक्षत्र हैं, वह आधुनिक रूपमें उसी पुरानी प्रथाके पुनरुज्जीवनका उदा- हरण है। दक्षिण आफ्रिकामें समग्र भारतीय प्रश्न उस प्रथाकी प्रतिष्ठा किये बिना कभी हल नहीं होगा। फलतः दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय युवकोंके सामने उनका कर्त्तव्य सरल और स्पष्ट है। उनके सम्मुख जो कार्य पड़ा है वह एक दिन या कुछ महीनोंका नहीं, बल्कि बरसोंका है; और वह बिना कठिन श्रमके पूरा नहीं किया जा सकता। उन्हें केवल निर्धनतामें ही सन्तुष्ट नहीं रहना है, बल्कि इस पेशेके लिए अपने आपको प्रशिक्षित भी करना है। इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कोई अन्य राजमार्ग नहीं है; परन्तु इसी कारणसे निराश हो जानेकी आवश्यकता नहीं। यदि एक भी युवक अपना जीवन भारतीय बालकोंकी उन्नतिके लिए अर्पित करनेका निश्चय कर ले तो वह इस कामको उठा सकता है। यद्यपि सहयोग और धन सदा ही बहुत सहायक रहेंगे, फिर भी शिक्षाका क्षेत्र ऐसा है जिसमें एक अकेला अध्यापक भी कई आदमियोंका काम कर सकता है। इसलिए किसीको भी यह प्रतीक्षा करनेकी आवश्यकता नहीं है कि दूसरे लोग आयेंगे और काम शुरू करेंगे। कोई भी अन्य धन्धा इतना पवित्र नहीं है। संस्कृतके एक श्लोकमें कहा गया है:
राजत्व और विद्वत्ता कदापि समान नहीं। राजा तो अपने देश में ही पूजा जाता है। किन्तु विद्वानकी पूजा सर्वत्र होती है।'
और भी:
धन खर्च करनेसे खत्म हो जाता है। किन्तु विद्या दूसरेको देनेसे बढ़ती है।
१. देखिए “भारतमें अनिवार्य शिक्षा", पृष्ठ ९४-५ ।
२. ये दोनों “सबैटस ऑफ इंडिया सोसाइटी के सदस्य थे और इन्होंने निर्वाह-खर्च मात्र लेकर कॉलेजकी सेवा की थी। इस सोसाइटीकी स्थापना स्वर्गीय गोखलेने की थी और इसके सदस्य अपना जीवन त्यागपूर्वक नाना प्रकारकी समाज-सेवाओंके लिए अर्पण कर देते थे।
३. विद्वत्वं च नृपत्वं च नैवतुल्ये कदाचन ।
स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।।