प्रदर्शन कर रहे हैं। इंग्लैंडमें अपने प्रचारके दौरानमें प्रोफेसर गोखले और लाला लाजपतरायने यह दिखा दिया है कि किसी सदुद्देश्यके निमित्त केवल दो सच्चे कार्यकर्ता भी कितना काम कर सकते हैं। तब भला यह कैसे हो सकता है कि जो प्रगतिशील धारा आज भारतीय राष्ट्रको अपने लक्ष्यकी ओर आगे बढ़नेके लिए प्रेरित कर रही है, उसके साथ-साथ दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय साहसपूर्वक आगे न बढ़ें और अन्यथा आचरण करें?
१९१. ब्रिटिश भारतीयोंका दर्जा
जैसी कि हमने आशा की थी, भारतीय राष्ट्रीय महासभाने अपनी हालमें हुई बनारसकी बैठकमें, इस महादेशके निवासी ब्रिटिश भारतीयोंके साथ होनेवाले बर्तावके बारेमें एक प्रस्ताव पास करके दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंके प्रति अपने कर्तव्यका पालन किया है। इस प्रस्तावमें निवेदन किया गया है कि मुसीबतोंसे राहत पानेके एक साधनके तौरपर नेटालमें गिरमिटिया मजदूर भेजना तबतक बन्द रखा जाये जबतक कि यह "सर्वाधिक ब्रिटिश" उपनिवेश भार- तीयोंकी वर्तमान असहनीय निर्योग्यताओंको दूर करने और उन्हें साम्राज्यमें बराबरीका सदस्य माननेको तैयार नहीं हो जाता। हम, एक बार फिर, इस तरह सार्वजनिक रूपसे इस विषयकी ओर ध्यान दिलाने और शिमलामें लॉर्ड कर्जन द्वारा अपने बजट-भाषणमें इस सम्बन्धमें घोषित नीतिका अनुमोदन करनेपर कांग्रेसको हृदयसे बधाई देते हैं।
जो लोग भारतमें होनेवाली घटनाओंसे अपनेको परिचित रखते आये हैं, उनके ध्यानमें यह बात आई होगी कि खास तौरसे १८९७ से सम्पूर्ण भारतीय प्रजाने, जिसमें आंग्ल-भारतीय और भारतीय दोनों शामिल है, और भारतके समस्त समाचारपत्रोने, चाहे वे अंग्रेजीमें निकलते हों अथवा देशी भाषाओंमें, निरन्तर उन्हीं भावनाओंको प्रकट किया है जो कांग्रेसके इस प्रस्तावमें व्यक्त की गई हैं। दुर्भाग्यवश, भारतमें शासन प्रणाली कुछ ऐसी है कि जिम्मेदार अफसरोंको सार्वजनिक मामलोंपर अपनी राय खुले-आम जाहिर करनेके मौके बहुत ही कम मिल पाते हैं --फिर वे विषय कितने भी गम्भीर क्यों न हों। इसका स्वाभाविक नतीजा यह है कि उनकी रायोंको जानना बहुत कठिन होता है। मुख्यत: इसी कारण ब्रिटिश संसदके दोनों सदनोंके सदस्योंको हम भारत-मंत्रीसे प्रश्न पूछते और इस प्रकार भारत-सरकारके मनमें क्या है, उसकी झलक पानेका प्रयत्न करते देखते है। दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय उनके पक्षका जोरदार समर्थन करनेवाले पूर्व भारत संघ, सर मं० मे० भावनगरी, सर विलियम वेडरबर्न और सर चार्ल्स डिल्कके कुछ कम कृतज्ञ नहीं हैं जिन्होंने निरन्तर पत्र-व्यवहार और सामयिक प्रश्नों द्वारा उपनिवेशोंमें ब्रिटिश भारतीयोंके दर्जे के बारेमें भारत सरकारकी कुछ-न-कुछ राय जाननेमें सफलता प्राप्त की है। हमारे पाठक उक्त संघकी उन कई बैठकोंको भूले न होंगे जो खास तौरसे इसी विषयपर बातचीत करनेके लिए बुलाई गई थीं, और जिनमें वक्ताओंने यह बताया था कि उनकी भारत-मन्त्री तथा उपनिवेश-मन्त्रीसे व्यक्तिशः क्या बातचीत हुई थी। पर इस विषयमें भारत सरकारके विचारोंपर उचित प्रकाश तभी डाला गया जब एक प्रभावशाली प्रतिनिधिमण्डल लॉर्ड जॉर्ज हैमिल्टनसे मिला और लॉर्ड महोदयने उसे
१. भारत-मंत्री, १८९५-१९०३ ।