एक वक्ता ने कहा कि परामर्शदाता-मण्डलोंकी नियुक्ति प्रवासियोंकी बाढ़ जारी होनेका प्रमाण है। क्या हम उन्हें बतायें कि ये मण्डल इसलिए नहीं स्थापित किये गये हैं कि प्रवासियोंकी बाढ़ जारी है, बल्कि उस आन्दोलनके उत्तरमें स्थापित किये गये हैं जो ट्रान्सवालके कुछ स्वार्थी दलोंने खड़ा किया था। और इसमें भारतीय शरणार्थियोंकी भावनाओं और सुविधाओंकी पूर्णतः उपेक्षा की गई। ये मण्डल उससे अधिक प्रभावकारी ढंगसे काम नहीं कर सके जितने प्रभावकारी ढंगसे अबतक अनुमतिपत्र अधिकारियोंने किया है। उसी वक्ताने यह भी कहा कि "वह इस बातका प्रमाण दे सकता है कि कुछ एशियाई गैर-कानूनी रूपसे आ रहे हैं, यह बात सरकार पहलेसे ही जानती थी।" यह वक्तव्य या तो सत्य है या असत्य। अगर यह सत्य है तो सरकारके प्रति, और भारतीय जनताके प्रति भी, वक्ताका कर्त्तव्य है कि वह नामोंके साथ विस्तृत जानकारी दे। अगर यह असत्य है तो उसे एक सम्मानित व्यक्तिकी तरह इसको वापस ले लेना चाहिए। इस प्रकारके गम्भीर वक्तव्योंका, जिनका समर्थन करनेके लिए कोई तथ्य न हों, और जो संयुक्त व्यापार संघकी कांग्रेस जैसी सार्वजनिक संस्थाके सामने रखे गये हों, खण्डन करना आवश्यक है; और हम जोरोंके साथ कहना चाहते हैं कि ट्रान्सवालमें भारतीयोंकी कोई ऐसी गैर-कानूनी बाढ़ नहीं आई है, जिसका उल्लेख वक्ताने किया है। हम यहाँ जनताका ध्यान इस तथ्यकी ओर खींचना चाहते हैं कि जोहानिसबर्गके ब्रिटिश भारतीय संघने इस विषयमें सार्वजनिक जाँचकी माँग की थी। किन्तु वह सरकारने इस कारण मंजूर नहीं की कि सरकारको पूर्ण विश्वास था कि भारतीयोंकी ऐसी कोई बाढ़ नहीं आई। जहाँतक नेटालमें भारतीय व्यापारमें कथित वृद्धिकी बात है, भारतीय परवानोंपर अत्यन्त प्रभावकारी एवं अत्याचारमूलक रोक लगी हुई है। जैसा कि कांग्रेसके सदस्योंको अवश्य ज्ञात होगा, नेटाल विक्रेता-परवाना अधिनियमके अन्तर्गत प्रत्येक भारतीय परवाना अधिकारीकी दयापर निर्भर है। उन्हें यह भी मालूम होगा कि दो सम्मानित भारतीयोंके[१], जो बहुत पुराने व्यापारी हैं, परवाने मनमाने तौरपर छीन लिए गए हैं, यद्यपि वस्तुस्थिति यह है कि व्यवसायमें यूरोपीयोंसे उनकी कोई प्रतिद्वन्द्विता नहीं थी।
ट्रान्सवालमें भी स्थिति इससे अच्छी नहीं है; फिर इसका कारण यही क्यों न हो कि ट्रान्सवालमें भारतीयोंकी आबादी इतनी ज्यादा नहीं है जितनी नेटालमें है, और उस उपनिवेशमें शरणार्थियोंको भी प्रवेश करनेमें कठिनाईका अनुभव होता है। साथ ही, हमें यह स्वीकार करनेमें कोई बाधा नहीं कि परीक्षात्मक मुकदमेमें, सर्वोच्च न्यायालयने जो निर्णय दिया है उससे भी एक हद तक — यद्यपि किसी उल्लेखनीय संख्या में नहीं — भारतीय परवानोंमें वृद्धि हुई है। किन्तु भारतीयोंने कहा है कि १८८५ के कानून ३ तथा सम्पूर्ण वर्गीय कानूनोंको रद कर दिया जाये तो वे नये व्यापारिक परवानोंका नियन्त्रण नगरपालिकाओंको दे देनेका सिद्धान्त मान लेंगे। इसमें उन्होंने बहुत बड़े संयमका परिचय दिया है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि उक्त प्रस्तावकी बहसमें जिन आठ वक्ताओंके भाग लेनेकी खबर है, उनमें केवल दो केप टाउनके थे और भारतीय व्यापार यूरोपीय व्यापारपर कोई प्रभाव डाल रहा है यह सिद्ध करनेके लिए उन्होंने कोई तथ्य या आँकड़े प्रस्तुत नहीं किये प्रतीत होते। इस तरह हर दृष्टिसे जांच करनेपर प्रस्ताव बिलकुल अनावश्यक है, और निश्चय ही वह तथ्योंपर आधारित नहीं है। इसका एक ही उपाय है और वह ट्रान्सवालके लोगोंके पास है; किन्तु उन्होंने अभीतक तो उसको मानने से इनकार ही किया है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि आठ वक्ताओंमें से पाँच ट्रान्सवालके थे और
- ↑ दादा उस्मान और हुंडामल; देखिए क्रमशः खण्ड ३, पृष्ठ १८, और खण्ड ४, पृ४ ३८५-८६।