निकाले जानेवाले निष्कर्ष काफी स्पष्ट हैं। प्राथियोंने स्पष्ट रूपसे सिद्ध कर दिया है कि दक्षिण आफ्रिकाके एक हिस्से, अर्थात् केप ऑफ गुड होप उपनिवेशमें, उनको प्रातिनिधिक संस्थाओंके आरम्भसे ही मताधिकार प्राप्त है। उन्होंने यह भी सिद्ध किया है कि १८९२ में मताधिकार कानूनपर पुनर्विचारके समय भी उसमें रंगके कारण निर्योग्यता लगानेके उद्देश्यसे कोई परिवर्तन नहीं किया गया। परिणामस्वरूप, इस समय, केपमें १४,००० कानून सम्मत रंगदार मतदाताओंके नाम सूचीमें दर्ज हैं। प्राथियोंने आगे कहा कि :
परन्तु उनका कहना है कि ज्योंही वे ऑरेंज रिवर कालोनी या ट्रान्सवाल उपनिवेशमें प्रवास करते हैं त्योंही उनपर और उनकी सन्तानोंपर, रंगभेदके कारण निर्योग्यताका प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है। प्राथियोंने मताधिकारको अपने कार्यक्रममें सर्वोच्च स्थान दिया है। यह उचित ही किया है क्योंकि, उन्हींकी भाषा में,
इस बयानकी सचाई बहुत-से उदाहरण देकर सिद्ध की जा सकती है। जिस देशमें लोक-संस्थाएँ हैं उसमें वे लोग अभागे हैं जिनको लोक प्रतिनिधियोंके चुनावमें मत देनेका अधिकार प्राप्त नहीं है। मताधिकार वंचित लोग अपना या अपने प्रतिनिधियोंका कोई दोष न होते हुए भी धीरे-धीरे दब जाते हैं, क्योंकि शासनमें स्वार्थ उभर आते हैं। ब्रिटिश भारतीयोंने अपने बारेमें भ्रम दूर करनेके उद्देश्यसे यह स्पष्ट कर दिया है कि उनको राजनीतिक सत्ताकी आकांक्षा नहीं है, परन्तु उनको इससे हानि हुई है और अब उन्होंने यह जाना है कि चूँकि नेटाल और दूसरे उपनिवेशों में लोक-प्रतिनिधियोंके चुनावमें उनकी कोई आवाज नहीं है, इसलिए उनकी नागरिक स्वतन्त्रतामें भी बहुत कमी हो गई है। रंगदार लोगोंका प्रार्थनापत्र महत्वपूर्ण दस्तावेज है। उसपर बहुत लोग हस्ताक्षर कर रहे हैं, और आशा की जाती है कि उसमें निहित प्रार्थनापर ध्यान दिया जायेगा और विचार किया जायेगा, जिसके वह निःसन्देह योग्य है। उदारदलीय मन्त्रियोंने अनेक बार साम्राज्यके दुर्बल सदस्योंको सहायता देनेकी इच्छा प्रकट की है। नये उपनिवेशोंको संविधान देनेमें उनका विवेक मुक्त है और उनको अपने सिद्धान्तोंको आचरण में उतारनेका एक अलभ्य अवसर प्राप्त है।
इंडियन ओपिनियन, २४-३-१९०६