रेलवेकी अड़चन
अलीवाल नॉर्थके[१] प्रसिद्ध व्यापारी श्री मुहम्मद सूरती दो दिन जोहानिसबर्ग में रह गये हैं। उन्हें जस्टिनसे आनेवाली रेलगाड़ीमें तकलीफ हुई। वे पहले दर्जेके एक डिब्बेमें बैठे थे। वहाँ उनका अपमान करके उन्हें दूसरे डिब्बेमें बैठाया गया। श्री मुहम्मद सूरतीको पता नहीं था कि ट्रान्सवालमें काले लोगोंके लिए अलग डिब्बे होते हैं। फिर वे खुद जिस डिब्बेमें बैठे थे उसमें कोई गोरा नहीं था, फिर भी गार्डने उन्हें तंग किया। इसपर उन्होंने रेलवेसे न्यायकी माँग की है।
प्रिटोरियासे ८-३० बजे जोहानिसबर्ग आनेवाली और जोहानिसबर्गसे प्रिटोरिया जानेवाली गाड़ी में भी, भारतीय यात्रियोंको नहीं चलने दिया जाता। इसके सम्बन्धमें ब्रिटिश भारतीय संघका शिष्टमण्डल रेलवेके महाप्रबन्धकसे मिलने गया था। उसने माँग की कि यह गाड़ी सिर्फ गोरोंके लिए सुरक्षित रखी गई है, इसलिए भारतीय इसमें बैठनेका आग्रह न रखें, तो अच्छा हो। महाप्रबन्धकके पास इसका कानूनन कोई बचाव नहीं था। शिष्टमण्डलने जवाब दिया कि इस मामलेमें भारतीय जनता पीछे नहीं हट सकती। जिस तरह गोरोंको सुविधा चाहिए उसी तरह भारतीयोंको भी चाहिए। इसका अगले आठ-दस दिनोंमें निबटारा होना सम्भव है।
ट्रामका मुकदमा
जोहानिसबर्गके ट्रामवाले मामलेका अभी अन्त नहीं हुआ है। हमारे लोगोंको ट्राममें नहीं बैठने दिया जाता, इसलिए उन्होंने फिर मुकदमा दायर किया है। श्री कुवाडिया जब ट्राममें बैठ रहे थे, उन्हें बैठने से रोका गया। इसलिए उन्होंने फिरसे हलफनामा पेश किया है। मुकदमेकी तारीख एक-दो दिनमें निश्चित होगी।
पृथक् बस्ती में गन्दगी
मलायी बस्ती में बसे हुए भारतीयोंपर डॉ° पोर्टरने इस हफ्ते छापा मारा था। चूँकि लोग बहुत घिचपिच रहते हैं, इसलिए उनमें से बहुत-से लोगोंको पकड़ कर ले जाया गया। इस सम्बन्धमें तथा अपना घर-आँगन और पाखाना साफ रखनेके विषयमें हमारे लोग बहुत ही लापरवाह होते हैं। इसका फल सभीको भोगना पड़ता है। जबतक हम इसमें पक्का सुधार नहीं करेंगे, तबतक हमारी मुसीबतें दूर नहीं होंगी। और अगर इस बीच प्लेग या छूतसे फैलनेवाले कोई और रोग आ घेरें, तो बहुत अधिक मुसीबतें भोगनी होंगी। ऐसा लगता है कि हमारे लोग १९०४ के प्लेगके अनुभव भूल गये हैं।[२]
गोरींका उत्साह
नये संविधानके बारेमें गोरोंने सम्राट्के नाम जो अर्जी तैयार की है, उसपर बहुत थोड़े समयमें ३५,००० हस्ताक्षर हो चुके हैं और अब भी हो रहे हैं। ऐसे ही उत्साहकी छूत हमें भी लगनेकी जरूरत मालूम होती है। फूटकी छूतकी अपेक्षा यदि हमें यह छूत लगे तो हमारी हालत कुछ और ही हो सकती है।
इंडियन ओपिनियन, १४-४-१९०६