२९१. पत्र : विलियम वेडरबर्नको[१]
ब्रिटिश भारतीय संघ
२५ व २६ कोर्ट चेम्बर्स
रिसिक स्ट्रीट
जोहानिसबर्ग
अप्रैल १२, १९०६
पैलेस चेम्बर्स
ट्रान्सवालमें ब्रिटिश भारतीयोंकी स्थिति दिन-प्रति-दिन अधिक असुरक्षित एवं दुःखद होती जा रही है। यह आवश्यक है कि जो कुछ यहाँ हो रहा है उसे संक्षेपमें दोहरा दूँ और ठोस काम करनेकी अपील करूँ।
यह तो सत्य है कि ब्रिटेनकी सरकार सम्राटके ट्रान्सवाल उपनिवेशमें हस्तक्षेप करनेमें सोच-विचारसे काम लेगी, किन्तु मेरा विचार है कि हस्तक्षेप न करनेवाली इस नीतिकी अवश्यमेव कोई सीमा होनी चाहिए। ट्रान्सवालमें एक शान्ति-रक्षा अध्यादेश जारी है जिसके अन्तर्गत ब्रिटिश भारतीयोंके आव्रजनको अत्यन्त स्वेच्छाचारिताके साथ नियन्त्रित किया गया है।
(क) अध्यादेशका उद्देश्य शान्ति-रक्षा करना, और, इसीलिए, बागियों तथा ऐसे लोगोंको, जो ब्रिटिश सरकारसे द्वेष रखते हों, दूर रखना था। किन्तु आज, वस्तुतः, उसका उपयोग केवल ब्रिटिश भारतीयोंके आव्रजनपर रोक लगानेके लिए किया जाता है।
(ख) ब्रिटिश भारतीय संघने इस स्थितिको स्वीकार कर लिया है कि उन भारतीयोंको, जो शरणार्थी नहीं हैं और जिनमें शैक्षणिक योग्यता नहीं है, बाहर ही रखा जाये।
(ग) वास्तवमें उन शरणार्थियोंका भी, जो युद्धके पहले उपनिवेशमें थे और जिन्होंने उपनिवेशमें रहनेकी अनुमति प्राप्त करनेके लिए ३ पौंड मूल्य चुकाया था, प्रवेश रोका जा रहा है; केवल अत्यन्त कठिन परिस्थितियोंमें ही उन्हें आने दिया जाता है।
(घ) ऐसे लोगोंको अनुमतिपत्र अधिकारी द्वारा अनुमतिपत्र जारी किये जानेसे पहले महीनों तटवर्ती नगरोंमें इन्तजार करना पड़ता है।
(ङ) देशमें प्रवेश करनेके लिए अनुमतिपत्र प्राप्त करनेसे पहले उन्हें अत्यन्त कष्टकर जाँच-पड़तालसे गुजरना पड़ता है। फिर वे अँगूठेका निशान लगानेके लिए बुलाये जाते हैं और उनके साथ अन्य सख्तियाँ बरती जाती हैं।
(च) ट्रान्सवालमें प्रवेशकी अनुमति देनेसे पहले उनकी पत्नियोंसे भी माँग की जाती है कि वे लिखित प्रमाणपत्र पेश करें।
- ↑ यह एक परिपत्र जान पड़ता है। इसकी एक नकल दादाभाई नौरोजीको भेजी गई थी। उन्होंने अन्तिम अनुच्छेद निकालकर एक वक्तव्य के रूपमें इसे ८ मई १९०६ को उपनिवेश मन्त्रीके पास भेजा था।