जो कुछ किया गया, उसके ये तीन उदाहरण भर हैं। श्री चेम्बरलेनने उक्त कानूनके अन्तर्गत होनेवाली क्रूरताओंके बारेमें नेटाल सरकारसे निवेदन किया था। उसका परिणाम यह हुआ कि नेटाल सरकारने हिदायतें निकालीं कि कानून कड़ाईके साथ लागू न किया जाये, नहीं तो, इसमें परिवर्तन कर दिया जायेगा। ऊपर जो उदाहरण दिये गये हैं उनसे बढ़कर क्रूरताके उदाहरण देना सम्भव नहीं है। ब्रिटिश भारतीय तो केवल इतना ही चाहते हैं कि परवाना अधिकारियों तथा परवाना-निकायोंके, जिनमें मुख्यतया व्यापारी ही हैं, निर्णयोंपर सर्वोच्च न्यायालयको विचार करनेका फिरसे अधिकार दे दिया जाये।
प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियम के अन्तर्गत अब जो नियम बनाये गये हैं, उनके द्वारा प्रत्येक अधिवासीको, जो अधिवासी प्रमाणपत्रका हकदार है, प्रमाणपत्र प्राप्त करनेके लिए १ पौंडका शुल्क देना पड़ेगा। जो भारतीय नेटालकी यात्रा करना चाहते हैं उनके अभ्यागत पासोंपर[१] तथा जो भारतीय भारतको जानेवाला जहाज पकड़नेके लिए नेटालसे गुजरते हैं उन्हें वहाँसे गुजरनेका अधिकार देनेके लिए नौकारोहण पासोंपर इसी तरहका शुल्क लागू किया गया है। यह कर लगाने की एक अप्रत्यक्ष प्रणाली है और इससे गरीब भारतीयोंको अत्यधिक असुविधा और हानियाँ उठानी पड़ती हैं।
मेरा खयाल है कि भारतीय संसदीय समितिको ये मामले बार-बार कांग्रेस तथा भारतीय मन्त्रियोंके सामने रखने चाहिए।
आपका विश्वस्त,
मो° क° गांधी
सौजन्य : भारत सेवक समिति।
२९२. पत्र : छगनलाल गांधीको
[जोहानिसबर्ग
अप्रैल १३, १९०६][२]
तुमको थोड़ी गुजराती सामग्री और विज्ञापन आदि भेज रहा हूँ। जहाँतक बने, सारे विज्ञापन इसी बार आ जायें, श्री वेस्टसे ऐसा करनेको कहना।
पिछली बार जितना बड़ा कारमनका था, उतना ही गार्लिक हेंट्ज़का छापना। मैंने उनके विज्ञापनके ऊपर जो लिख दिया है, उसका ध्यान रखना। जीवनजी को ६ इंच देना। दूसरोंके बारेमें कहने लायक कुछ नहीं है।
श्री हरिलाल ठाकुरको अपने साथ लाऊँगा। शामकी आखिरी गाड़ीसे चलूँगा।
मोहनदास के आशीर्वाद
- ↑ देखिए "पत्र : उपनिवेश-सचिवको", पृष्ठ २२९-३०।
- ↑ मूल प्रतिमें तारीख अप्रैल २३, १९०६ है। यह गलत जान पड़ती है, क्योंकि पत्रमें गार्लिक हेंट्ज़के जिस विज्ञापनका उल्लेख हुआ है, वह २१-४-१९०६ के इंडियन ओपिनियन में प्रकाशित हुआ था। पत्र निश्चय ही प्रायः एक सप्ताह पूर्व, सम्भवतः १३ अप्रैलकों, जिस दिन गांधीजी फीनिक्सके लिए रवाना होनेको थे, लिखा गया होगा। देखिए "पत्र: छगनलाल गांधीको", पृष्ठ २८१।