अखबारोंमें चर्चा चली थी कि अगर नियमित लड़ाई छिड़ जाये, तो क्या भारतीय उसमें हाथ बँटायेंगे? हम अपने अंग्रेजी लेखमें[१] लिख चुके हैं कि भारतके लोग हाथ बँटानेको तैयार हैं। और हम मानते हैं कि जो काम हमने बोअर युद्ध में किया था वैसा ही इस समय भी करना जरूरी है। यानी, अगर सरकार चाहे, तो हमें आहत सहायकों की टुकड़ी खड़ी करनी चाहिए। यदि सरकार हमेशाके लिए "स्वयंसेवा" का प्रशिक्षण देना चाहे, तो वह भी हमें स्वीकार करना चाहिए।
स्वार्थकी दृष्टिसे देखनेपर भी यह कदम मुनासिब माना जायेगा। बारह वर्तनियोंके किस्सेसे पता चलता है कि हमें जो कुछ भी न्याय प्राप्त करना है सो स्थानीय सरकारसे ही। उसे प्राप्त करनेके लिए, पहला काम यह है कि हम अपने कर्तव्यका पालन करें। इस देशकी साधारण प्रजा अपनेको लड़ाईके लिए तैयार रखती है, तो हमें भी उसमें हाथ बँटाना चाहिए।
इंडियन ओपिनियन, १४-४-१९०६
२९८. फेरीवालोंपर खतरा
डर्बनकी नगर परिषदने यह प्रस्ताव पास किया है कि परवाने देनेवाले अधिकारी फेरीवालोंको नया परवाना न दें, और जिनके पास परवाने हैं जहाँतक बने उनकी संख्या भी कम की जाये; क्योंकि फेरीवालोंके व्यापारसे दूकानदारोंको नुकसान पहुँचता है। अबतक नगर-परिषद गुप्त सिफारिश किया करती थी। अब वह खुला हुक्म देती है कि अधिकारीको क्या करना चाहिए। मतलब यह हुआ कि अब नगर परिषद ही ऊपरी और निचली अदालतोंके फैसले देनेवाली बन गई है।
फिर ऐसा हुक्म जारी करनेका मतलब यह होता है कि लोगोंको मुसीबत भले ही उठानी पड़े, दूकानदारोंको लाभ होना ही चाहिए। ऐसे कानूनके खिलाफ बहुत ही कड़ी लड़ाई लड़ी जायेगी तभी कुछ राहत मिलेगी।
इंडियन ओपिनियन, १४-४-१९०६
- ↑ देखिए "भारतीय स्वयंसेवक", पृष्ठ २६१-२।