३००. ट्रान्सवालके अनुमतिपत्र
हम श्री मंगाके मामलेकी ओर इन स्तम्भोंमें ध्यान आकर्षित कर चुके हैं।[१] आज हम उसीपर अपने सहयोगी 'रैंड डेली मेल' का अभिमत अन्यत्र प्रकाशित कर रहे हैं। इस सम्बन्ध में हमारे सहयोगीने जो बातें कहीं हैं वे कठोर तो हैं, पर बिलकुल उचित हैं। हम लेखकको अपना विश्वास साहसके साथ प्रकट करनेपर बधाई देते हैं।
हमारे जोहानिसबर्गके संवाददाताने अपनी "टिप्पणियों" में एक दूसरे मामलेका जिक्र किया है। उससे ऐसी स्थितिपर प्रकाश पड़ता है जो बिगड़ती ही गई तो ब्रिटिश भारतीय शरणार्थियोंको भी अपनी शिकायत दूर कराना असम्भव-सा हो जायेगा। हमारे संवाददाताने एक प्रतिष्ठित ब्रिटिश भारतीय शरणार्थीके मामलेका जिक्र किया है जिसको अनुमतिपत्र नहीं दिया गया — यद्यपि प्रार्थीने अपना पूर्व निवास साबित करनेके लिए इज्जतदार यूरोपीयोंकी गवाही पेश की थी। जहाँतक हम जानते हैं, एक शरणार्थीको, पुनः प्रवेशकी अनुमति देनेसे साफ इनकार करनेका यह पहला ही मामला है। इससे भी अधिक गम्भीर बात तो यह है कि जहाँतक भारतीयोंका सवाल है, अनुमतिपत्र अध्यादेशके मामलेमें, पिछले कुछ दिनोंसे गोपनीयताका रूसी तरीका अपनाया जा रहा है। हमारे संवाददाताका कहना है कि श्री मंगाके मामलेकी तरह इस मामले में भी, अनुमतिपत्र अधिकारीने अपनी अस्वीकृतिके कारण बतानेसे इनकार किया है। फलतः भविष्य में ब्रिटिश भारतीयोंको कारण सूचित किये बिना ही ट्रान्सवालसे बाहर रखा जायेगा।
और यह सब यहीं खत्म नहीं होता। गुजराती स्तम्भों में एक संवाददाताने हमारा ध्यान एक ऐसे मामलेकी ओर आकर्षित किया है जिसमें फोक्सरस्टमें एक छः सालका बच्चा अपनी मातासे अलग कर दिया गया, क्योंकि बच्चेका कोई अनुमतिपत्र नहीं था। हमें ज्ञात हुआ कि अभागे पिताके पंजीकरण पत्रकमें उसके दो पुत्र होनेका उल्लेख था।
हम लॉर्ड सेल्बोर्नका ध्यान भारतीयोंकी गम्भीर स्थितिकी ओर आकर्षित करते हैं। परमश्रेष्ठके शब्दोंको कार्यरूपमें परिणत करनेका समय आ पहुँचा है। बुद्धिसंगत पूर्वग्रहोंका आदर किया जाये, यह हमारी इच्छा है; और इसमें हम किसीसे पीछे नहीं हैं। इसलिए हमने उन एशियाइयोंका आव्रजन नियमित करना वांछनीय माना है जो पहले ट्रान्सवालमें नहीं रहे हैं। लेकिन, प्रिटोरियाके अधिकारी एशियाई विरोधी दलको खुश करनेके लिए जिस तरह भटक रहे हैं, उसका अर्थ है एक बिलकुल ही भिन्न योजना। और यदि वे समझते हैं कि भारतीय अपनी शिकायत दूर करानेका गम्भीर प्रयत्न किये बिना ही अपने निहित अधिकार पैरों तले कुचल जाने देंगे, तो वे बड़ी भूल करते हैं।
इंडियन ओपिनियन, २१-४-१९०६
- ↑ देखिए "ट्रान्सवाल अनुमतिपत्र अध्यादेश", पृष्ठ २८८-९।