इस परिस्थितिमें हम सबने सोचा है कि स्वयंसेवक दलका संगठन इंग्लैंड-यात्रासे बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है। यह जरूरी समझा गया है कि मैं दलके साथ रहूँ — कमसे-कम प्रारम्भिक अवस्थामें। यह स्पष्ट है कि नेटाल-सरकार आहत सहायता कार्यमें भारतीयोंकी शक्तिकी कसौटी करना चाहती है।
इसलिए लगता है, फिलहाल इंग्लैंड जानेका कोई भी विचार मुझे छोड़ देना पड़ेगा।
इस कारण से यहाँ हम लोग आशा किये हैं कि जो समिति दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय हितोंकी देख-भाल कर रही है वह सरकारके सामने परिस्थिति पेश करनेके लिए जरूरी कदम उठायेगी।
ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंकी ओरसे संविधान-समितिके[१] सामने पेश किया गया वक्तव्य आपने देख लिया होगा। इस सम्बन्धमें जो कुछ कहा जा सकता है, वह सब उसमें सार रूपमें मौजूद है। वह वक्तव्य इसी २ जूनके 'इंडियन ओपिनियन' में निकला है।
आपका विश्वस्त,
मो° क° गांधी
मूल अंग्रेजी प्रतिकी फोटो नकल (जी° एन° २२७३) से।
३७६. भारतीय और वतनी विद्रोह
आखिर सरकारने भारतीय समाजका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है और उसे अपने पानीका परिचय देनेका अवसर दिया है। प्रयोगके लिए सरकार बीस डोलीवाहकोंका एक दल चाहती है। इसका उत्तर नेटाल भारतीय कांग्रेसने तत्काल भेज दिया है।[२] कांग्रेसने हमारे खयालसे, यह प्रस्ताव करके बहुत अच्छा किया है कि जबतक यह दल प्रयोगकी अवस्थामें रहेगा तबतक डोलीवाहकोंकी मजदूरी भारतीय समाज देगा।
सरकारने इस प्रस्तावको स्वीकार करनेके साथ-साथ बारूदी हथियार कानून में संशोधन करके भारतीयोंको शस्त्र देनेकी व्यवस्था कर दी है। इसी बीच श्री मेडनने इस आशयका वक्तव्य भी दिया है कि सरकार भारतीयोंको उपनिवेशकी रक्षामें भाग लेनेका अवसर देना चाहती है।
अब भारतीयोंको यह दिखानेका शानदार अवसर मिला है कि वे नागरिकताके कर्त्तव्योंको समझ सकते हैं। साथ ही दलको संगठित करनेकी बातमें ऐसा कुछ नहीं है जिसपर अनुचित गर्व किया जाये। मोर्चे पर बीस या दो सौ भारतीयोंका भी जाना मशक दंशवत् है। भारतीयों का वह त्याग सूक्ष्मतम ही माना जायेगा और वह उचित ही होगा। किन्तु इस घटनाके पीछे जो सिद्धान्त है उससे इसका महत्त्व प्रकट होता है। सरकारने भारतीयोंका प्रस्ताव स्वीकार करके अपने सद्भावका परिचय दिया है। अब यदि भारतीय इस अग्नि परीक्षामें उत्तीर्ण हो जाते हैं तो भविष्य के लिए सम्भावनाएँ बहुत बड़ी है। यदि उनको नागरिक सेनामें स्थायी रूपसे शामिल कर लिया जाये तो यूरोपीयोंको यह शिकायत करनेका कोई कारण न रहेगा कि उपनिवेशकी रक्षाका प्रधान भार यूरोपीयोंको ही उठाना पड़ता है। और तब भारतीय भी यह अनुभव न करेंगे कि उनको नागरिक सेनामें शामिल होनेकी इजाजत न देकर उनके साथ तिरस्कारपूर्ण व्यवहार किया जाता है।
इंडियन ओपिनियन, ९-६-१९०६