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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 5.pdf/३९७

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३७७. फौजियोंको मदद

काफिरोंके खिलाफ लड़ाई में गये हुए सिपाहियोंकी मददके लिए डर्बन महिला मण्डलने एक विशेष निधि शुरू की है। इस निधिमें सभी प्रमुख लोगोंने चन्दा दिया है। उनमें कुछ भारतीय नाम भी दिखाई पड़ते हैं। हमारी सलाह है कि और भी अधिक भारतीय व्यापारियों तथा दूसरे भारतीयोंको उसमें चन्दा देना चाहिए। हम पिछले सप्ताह लिख चुके हैं कि एक व्यक्तिने हमें मैरित्सबर्ग में ऐसी निधि इकट्ठा करनेकी सलाह दी है। उनका कहना है कि हम और तरहसे लड़ाईमें पूरा हाथ नहीं बँटा सकते, तो इस तरहसे सहायता कर लें।

फौजियोंकी जिन्दगी कठिन होती है। उन्हें सरकार जो वेतन, भत्ता आदि देती है, वह हमेशा काफी नहीं होता। इसलिए लड़ाईमें न जानेवाले हमेशा अपनी भावना जाहिर करनेके लिए और उन्हें जरूरी चीजें पहुँचाने के लिए निधि इकट्ठा करते हैं; और उससे मेवे, तम्बाकू, गर्म कपड़े आदि लेकर भेजते हैं। ऐसी निधिमें मदद करना हमारा कर्त्तव्य है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ९-६-१९०६
 

३७८. नेटालमें भारतीयोंकी स्थिति[]

[जून १३, १९०६ के पूर्व]

नेटालके भारतीय समाजको दो चीजें बहुत अधिक तकलीफ देती हैं। इनमें पहली है विक्रेता-परवाना अधिनियम।

जब यह अधिनियम पास हुआ था तब स्वर्गीय सर हेनरी बिन्सने इसका कड़ा विरोध किया था और कहा था कि यह कार्रवाई अब्रिटिश है और सर्वोच्च न्यायालयके सामान्य क्षेत्र से इसका विलग रखा जाना एक खतरनाक सिद्धान्त है। अनुभवने इस भविष्यवाणीका औचित्य प्रकट कर दिया है। प्रारम्भिक अवस्थामें इस अधिनियम के प्रशासनमें ब्रिटिश भारतीयोंके व्यापारको रोकनेकी धुनका अतिरेक दिखलाई पड़ता था। न्यूकैसिलके परवाना अधिकारीने सभी भारतीय परवानोंको नया करनेसे इनकार कर दिया था। वे परवाने संख्यामें नौ थे। उनमें से छः परवाने बहुत अधिक खर्च और परेशानीके बाद नये कर दिये गये। परिणामस्वरूप और उपनिवेश कार्यालयके दबावके कारण सरकारने परवाना अधिकारियोंके नाम एक चेतावनी जारी की कि यदि वे अधिनियमका उपयोग बुद्धिमानी और नरमीके साथ तथा वर्तमान परवानोंका ध्यान रखते हुए नहीं करेंगे तो सरकार कानूनका संशोधन करने और उसे सर्वोच्च न्यायालयके कार्यक्षेत्रमें रखने को बाध्य हो जायेगी। इस गश्ती चिट्ठीका असर कुछ समय तक रहा। अधिक रहना सम्भव नहीं था।

 
  1. नेटाल मर्क्युरीने सुझाव दिया था कि भारतीयोंको अपनी शिकायतें संक्षेपमें लिख कर जनताके सामने प्रस्तुत करनी चाहिए। इससे जनता अपना मत बनानेकी अधिक अच्छी स्थितिमें होगी। यह वक्तव्य इसी सुझावके फलस्वरूप १३-६-१९०६ के नेटाल मर्क्युरीमें प्रकाशित हुआ था। बाद में यह इंडियन ओपिनियनमें उद्धृत किया गया था।