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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 5.pdf/८४

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६९. विश्व-धर्म

वह जमाना अब नहीं रहा जब कि किसी एक मतके माननेवाले लोग मौका-बे-मौका कह दिया करते थे कि हमारा मजहब ही सच्चा मजह्व है, दूसरे सब मजहब झूठ हैं। सभी धर्मों के प्रति सहनशीलताकी बढ़ती हुई भावना, भविष्यके लिए शुभ-सूचक है । लन्दनसे 'क्रिश्चियन वर्ल्ड' नामक एक साप्ताहिक मजहबी अखबार प्रकाशित होता है। इसमें 'जे० बी०' नामके एक सज्जन इस विषयपर प्राय: लेख भेजा करते हैं। मैं इस समाचारपत्रमें अभी हालमें ही प्रकाशित उनके एक लेखसे कुछ उद्धरण यहाँ देना चाहता हूँ।

लेखक बहुत ही उदार और उदात्त भावनाके साथ ईसाई दृष्टिकोणसे इस प्रश्नका विवेचन करते है। और यह दिखाते हैं कि किस प्रकार संसारके सब मजहब आपसमें जुड़े हुए हैं और इनमें से प्रत्येकमें कुछ ऐसे लक्षण भी हैं जो सभीमें विद्यमान हैं। एक ईसाई मत-प्रचारक अखबारमें ऐसे लेखका प्रकाशित होना उल्लेखनीय है और यह प्रकट करता है कि वह समयके साथ चल रहा है। कुछ वर्ष पूर्व ऐसा लेख धर्म-विरोधी उपदेश ठहराया गया होता और उसका लेखक अपने ही उद्देश्यका द्रोही कहा जाता और निन्दाका पात्र बन गया होता।

दूसरे मजहबोंके प्रति जो नई भावना ईसाइयोंकी मनोवृत्तिको बदल रही है उसका उल्लेख करने और यह दिखानेके बाद कि किस प्रकार कुछ साल पहले यह धारणा फैली हुई थी कि अन्य अनेक झूठे मजहबोंके बीच केवल ईसाई धर्म ही एक सच्चा धर्म है, उन्होंने कहा है:

भारी परिवर्तन हुए हैं, और इन परिवर्तनोंका एक पहलू औसत आदमीको अत्यधिक चकित कर देने वाला यह रहस्योद्घाटन है कि वह अबतक जिन सिद्धान्तोंके बीच पला है, वे प्रारम्भिक ईसाई धर्मको शिक्षा कभी नहीं थे। वह देखता है कि अन्य जातियों और धमाके विषयमें उसे अबतक जो राय रखनी पड़ी है, पुराने धर्मोपदेशकोंमें से सबसे उदारचेता उससे बहुत भिन्न विचार रखते थे। वह मसीहा-कालके इतने समीपवर्ती जस्टिन मार्टरके विषयमें सुनता है जो सुकरातके ज्ञानको 'दिव्यवाणी' से प्रेरित मानते थे। वह ऑरिगेन और निसा-निवासी ग्रेगरीके सिद्धान्तोंका परिचय प्राप्त करता है जिसकी सीख यह है कि समस्त मानव जाति एक ही दिव्य निर्वे शके अधीन है। वह लक्टेंशसके विषयमें भी सुनता है जो यह मानते थे कि ईश्वरकी सत्तामें विश्वास सभी धर्मोका समान गुण है . दरअसल, प्रत्येक युगमें अपेक्षाकृत सूक्ष्म चिन्तन करनेवाले ईसाइयोंने प्रायः इसी पद्धतिपर सोचा है। जरूरत सिर्फ इस बातकी रही है कि मनुष्य अन्य जातियोंके सम्पर्क में-- चाहे साहित्यके माध्यमसे हो या साक्षात् रूपमें आयें, जिससे वे इस बातको अनुभूति कर सकें कि धर्मों के बीच की 'अलंध्य खाई ' का सिद्धान्त जीवन और आत्मा, दोनों धरातलोंपर गलत है...

धर्म अपने विभिन्न नामों और रूपों में मानव-हृदयमें एक ही बीज बोता आ रहा है --ज्यों-ज्यों उसका मस्तिष्क ग्रहण करने योग्य होता गया है, उसके सामने एक ही सत्यका उद्घाटन करता आया है।

१. यह लेख 'विशेष रूपसे प्रेषित' रूपमें प्रकाशित हुआ ।