लेखक आगे कहता है कि अनेक ईसाई संस्थाएँ और सिद्धान्त अन्य धर्मोके ज्ञानसे ही उत्पन्न हुए हैं। इसके अनेक प्रतीक प्राचीनकालके ध्वंसावशेष ही है।
इस दृष्टिसे प्राचीन फारसकी मित्र-पूजा कितनी आश्चर्यजनक है! एम० क्यूमोटके शब्दोंमें, 'ईसाइयोंकी तरह ही मित्र-धर्मानुयायी परस्पर एक होकर सुगठित समाजोंमें रहते थे, और एक-दूसरेको पिता और भाई कहकर पुकारते थे। ईसाइयोंके समान ही वे 'बप्तिस्मा', 'सहभोज' और 'नामकरण' आदि संस्कारोंका पालन करते थे। सर्वमान्य नैतिकताको शिक्षा देते थे; चारित्रिक शौच तथा आत्मत्यागका उपदेश करते थे, और आत्माकी अमरता तथा मरणोत्तर जीवनमें विश्वास करते थे।
अगर लेखक ईसाई धर्मको सर्वोच्च स्थान देना चाहता है तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं। परन्तु यह देखकर सन्तोष होता है कि ईसाई लेखकों तथा समाचारपत्रोंने ऐसी उदरा मनोवृत्ति अपनायी है।
सबके हितोंको लक्ष्य बनाकर काम करनेवाले यूरोपीयों तथा भारतीयोंके लिए यह बात विशेष महत्त्व रखती है। भारतका धर्म बहुत प्राचीन है। उसके पास देनेके लिए बहुत-कुछ है। हम दोनोंके बीच एकता बढ़ानेका सबसे अच्छा उपाय यह है कि हममें एक-दूसरेके प्रति हार्दिक सहानुभूति और एक-दूसरेके मजहबके लिए आदर हो। इस महत्त्वपूर्ण प्रश्नपर और अधिक सहिष्णुताका फल हमारे दैनिक सम्बन्धोंमें अधिक व्यापक उदारताके रूपमें प्रकट होगा और वर्तमान मनमुटाव मिट जायेंगे। और फिर क्या यह एक तथ्य नहीं है कि हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच इस प्रकारकी सहिष्णुताकी महती आवश्यकता है ? कभी-कभी ऐसा खयाल आता है कि पूर्व और पश्चिमके बीच सहिष्णुताकी स्थापनाकी इतनी बड़ी आवश्यकता नहीं है जितनी हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच । भारतीयोंके ही आपसी संघर्ष और कलहसे उनका मेलजोल नष्ट न होने पाये। जिस समाजमें फूट है वह ढहे बिना रह नहीं सकता। इसलिए मैं भारतीय समाजके सभी अंगोंके बीच पूर्ण एकता और भ्रातृभावनाकी आवश्यकतापर जोर डालना चाहता हूँ।