उसके मनमें ज्यों ही यह विचार उठा, उसने अमेरिकी रिवाजके अनुसार संसदका प्रतिनिधि बननेका इरादा किया। उसने अपनी विशेषताएँ जाहिर करनेके लिए पहला लेख लिखा। उसने बड़ी टक्कर ली, परन्तु वह स्वयं अभी इस दिशामें अनभिज्ञ था, और उसका प्रतिस्पर्धी एक प्रख्यात व्यक्ति था। इसलिए उसने पराजय पाई, किन्तु उसका शौर्य पहलेसे बढ़ गया।
उसकी भावनाएँ और भी तीन हो गई। उस समयके अमेरिकाकी परिस्थितिका सही- सही चित्र जिस व्यक्तिकी कल्पनामें आ सके वही लिंकनके गुणों और उसकी सेवाको समझ सकता है। अमेरिका इस समय उत्तरसे दक्षिण तक गुलामोंका पड़ाव बना हुआ था। आफ्रिकाके नीग्रो लोगोंको सरे-आम बेचना और उन्हें गुलामीमें रखना जरा भी अनुचित नहीं माना जाता था। बड़े-छोटे, अमीर-गरीब सभी लोग गुलामोंको रखने में अनहोनापन नहीं मानते थे। इसमें किसीको कोई बुराई नहीं लगती थी। धार्मिक मनुष्य और पादरी आदि लोग गुलामीकी प्रथाको बनाये रखने में आगा-पीछा नहीं करते थे। कुछ तो उसे उत्तेजना देते थे और सब यही समझते थे कि गुलामीकी प्रथा भी ईश्वरी नियम है; और नीग्रो गुलामीके लिए ही जन्मे हैं। केवल थोड़े ही मनुष्य देख पाते थे कि यह व्यवसाय अत्यन्त दूषित और अधार्मिक है। जो इस प्रकार देख सकते थे वे मौन साधे रहते थे, ताकत नहीं आजमाते थे। कुछ लोग गुलामोंकी स्थिति सुधारने में थोड़ा-सा योग देकर सन्तोष कर लेते थे। उस समय गुलामोंपर जो अत्याचार किये जाते थे उसका वृत्तान्त सुनकर आज भी हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उनको बांधकर मारा-पीटा जाता था, उनसे जबरदस्ती काम लिया जाता था, उन्हें जलाया जाता था, बेड़ियाँ पहनाई जाती थीं; और यह नहीं कि यह सब एक-दो व्यक्तियोंपर ही किया जाता हो बल्कि सबपर यही बीतती थी। इस प्रकारके विचार जिन लोगोंके दिलोंमें गहरी जड़ जमा चुके थे, उनके विरोधमें खड़े होकर उनके विचारोंको पलटनेका और इसी व्यवसायपर जिन लाखों मनुष्योंकी आजीविका थी उन मनुष्योंका विरोध मोल लेकर और उनसे लड़ाई करके गुलामोंको बन्धनसे छुड़ानेका निश्चय अकेले लिंकनने किया और उसे पार उतारा, ऐसा कहा जा सकता है। ईश्वरपर उसकी आस्था इतनी अधिक थी, उसका स्वभाव इतना अधिक नरम था और उसकी दया इतनी गहरी थी कि रोज-रोज अपने भाषणों, लेखों और रहन-सहनके द्वारा वह लोगोंके मनको बदलने लगा। अन्त में लिंकनका पक्ष और उसका विरोधी, ऐसे दो पक्ष पैदा हो गये और अमेरिकामें बड़ा भारी घरेलू युद्ध हुआ। लिंकन इससे जरा भी डरा नहीं। अबतक वह इतना ऊँचा उठ चुका था कि उसे राष्ट्रपतिका पद मिल चुका था। लड़ाई कई वर्ष तक चलती रही, परन्तु लिंकन सन् १८५८-५९ से पूर्व ही सारे उत्तर अमेरिकामें गुलामीकी प्रथा बन्द कर चुका था। गुलामोंके बन्धन टूटे। जहाँ-जहाँ लिंकनका नाम लिया जाता वहाँ-वहाँ वह लोगोंके दुःख हरनेवाले मनुष्यके रूपमें पहचाना जाता था। उसने इस संघर्षके समय जो जोशीले भाषण दिये उनकी भाषा इतनी उत्तम थी कि वे अंग्रेजी साहित्यमें बहुत ऊँचे दर्जे के भाषण माने जाते हैं।
इतना ऊँचा उठ जानेपर भी लिंकन सदैव विनम्र बना रहा। वह हमेशा यह मानता था कि जो प्रजा या व्यक्ति शक्तिशाली हो, उसे अपने बलका उपयोग गरीब अथवा कमजोर लोगोंका दुःख मिटानेके लिए करना चाहिए, न कि ऐसे लोगोंको कुचलनेके लिए। यद्यपि अमेरिका उसकी अपनी जन्मभूमि थी और वह स्वयं अमेरिकी था फिर भी समस्त संसार अपना देश है, ऐसा वह मानता था। वह उन्नतिके शिखर तक पहुँच गया था और उसका व्यक्तित्व इतना श्रेष्ठ था, तिसपर भी कुछ दुष्ट लोग यह मानते थे कि गुलामीकी प्रथाको हटाकर लिंकनने बहुत लोगोंको हानि पहुँचाई है। इसलिए एक बार जब यह निश्चित मालूम हुआ कि लिंकन नाटक-