चौथा कारण
उक्त समितिकी नम्र सम्मतिम खण्ड २ का उपखण्ड ४ अत्यन्त अस्पष्ट है और उसकी व्याख्या करना मुश्किल है। तो भी यह स्पष्ट है कि वह, दूसरी बातोंके अलावा योग्य भारतीयोंको निशाना बनाता है। एशियाई कानून संशोधक अधिनियमकी शतोंको उनसे पूरा करानेका विधान करके वह जो-कुछ एक हाथसे देता है उसे दूसरे हाथसे छुड़ा लेता है; क्योंकि यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि कोई भारतीय व्यापक शिक्षा पानेके बाद कभी इस अधिनियमकी शर्तोको स्वीकार करेगा। ऐसे भारतीयोंको ऐसे अधिनियमका शिकार बनानेके लिए कोई दलील भी दिखाई नहीं देती जिसका उद्देश्य ट्रान्सवालमें रहनेवाले भारतीयोंकी शिनाख्त करना है, क्योंकि ऐसे भारतीय तो यूरोपीय भाषाके अपने ज्ञानके कारण अपने-आप पहचानके चिह्न रखते ही हैं। एशियाई कानून संशोधक अधिनियम इसलिए जरूरी माना गया है कि इस उपनिवेशमें रहनेवाले अधिकांश एशियाइयोंको अक्षर-ज्ञान भी नहीं है। शिक्षित भारतीयोंसे इस अधिनियमका पालन कराना उक्त समितिकी नम्र सम्मतिमें उनका अकारण अपमान है, साथ ही वह भारतीयोंको इस विधेयककी शिक्षा सम्बन्धी धाराके लाभसे वंचित करनेका अप्रत्यक्ष ढंग है।
पाँचवाँ कारण
इस बातसे इनकार नहीं किया जा सकता कि जिन भारतीयोंको ट्रान्सवालमें रहनेका हक है उनको अपने अस्थायी सहायक बाहरसे बुला सकनेकी सुविधासे वंचित करना एक गम्भीर शिकायत है।
छठा कारण
मूल मसविदेमें खण्ड ६ का उपखण्ड (ग) नहीं था। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, ट्रान्सवालके भारतीय एशियाई कानून संशोधन अधिनियमके बारेमें, जीवन-मरणके युद्ध में लगे हुए हैं। अनुमान है कि हजारों भारतीय उक्त अधिनियमके सामने सिर झुकानेकी अपेक्षा जेलकी कठिनाइयाँ सहने को तैयार हैं। उनमें से बहुतोंके लिए ट्रान्सवाल उनका अपना घर है, जहाँ वे ईमानदारीसे अपनी रोजी कमाते हैं। उनको देशसे निकाल देना, शायद उनको भुखमरीका सामना करनेको निश्चय ही, अपने भावी जीवनकी सम्भावनाओंको नष्ट कर देनेको विवश करना है। जहाँ एशियाई कानून संशोधक अधिनियमके अनुसार पंजीयनका प्रमाणपत्र न लेनेपर उसे उपनिवेशसे निकल जानकी सूचना दी जा सकती है, वहीं इस प्रकारकी सूचनाकी उपेक्षा करनेपर अपराधीको जेल भेजा जा सकता है। ऊपर जिस उपखण्ड (ग) का उल्लेख किया गया है उसके अनुसार स्थानीय सरकारको यह अधिकार मिल जाता है कि वह एशियाई कानून संशोधक अधिनियमके अधीन दी गई सूचनाकी अवहेलना करनेवाले किसी भी व्यक्तिको उसीके खर्चपर जबरदस्ती पकड़कर देशसे बारह निकाल सके। इस प्रकार नम्रतापूर्वक निवेदन किया जाता है कि उक्त खण्ड अपने-आपमें न केवल एक निर्दय नियम है वरन् वह अत्यधिक अन्यायपूर्ण भी है, क्योंकि वह अप्रत्यक्ष रूपसे एशियाई कानून संशोधक अधिनियममें इस तरहका परिवर्तन करता है जिससे सम्बन्धित व्यक्तियोंको बहुत ही असुविधा होगी । उक्त समितिको इस बातका विश्वास है कि यदि ऐसा संशोधन स्वयं इस अधिनियममें ही किया गया होता तो उसे शाही स्वीकृति नहीं मिलती। अतएव उक्त समितिको विश्वास है कि महामहिम सम्राट्की सरकार उक्त अधिनियमके अनुसार असाधारण अधिकार देनेवाले उक्त