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१४२. प्रस्तावित समझौता

ट्रान्सवालके उपनिवेश-सचिव और श्री गांधीके बीच हुए पत्र-व्यवहारको हम अन्यत्र छाप रहे हैं। यह बड़ी दयनीय बात है कि जनरल स्मट्सने श्री गांधीके सुझावको स्वीकार नहीं किया यद्यपि वह समाजके नामसे नहीं किया गया, फिर भी हमारा खयाल है कि यह दोनों दलोंको एक गम्भीर कठिनाईसे बाहर निकल आनेकी साफ राह देता है। जनरल स्मट्स कानूनको लाग करनकी अपनी योग्यतापर पूरी तरहसे भरोसा रखते हैं और इसलिए श्री गांधीके प्रस्तावको अस्वीकार करते हैं। हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि ऐसे युक्तिसंगत हलको अस्वीकार कर देनेसे प्रकट होता है कि जनरल स्मट्स ट्रान्सवालके भारतीयोंके बारेमें कितनी ओछी राय रखते हैं। तदनुसार हम सोचते हैं कि अब ट्रान्सवालके भारतीयोंका पहलेसे कहीं अधिक कर्तव्य हो गया है कि वे अपने आखिरी दम तक कानूनके आगे न झुकनेके आन्दोलनको जारी रखें। ट्रान्सवालको सरकारके दृढ़ निश्चयसे उन भारतीयोंकी कोई हानि नहीं हो सकती जो पहले ही से बड़ेसे-बड़े त्यागके लिए तैयार है। न तो जेल और न निर्वासनसे उन भारतीयोंके दिलोंमें जरा भी डर पैदा होना चाहिये जो अपनी इज्जतको सबसे बड़ी चीज समझते हैं।

श्री गांधीने अपना मसविदा भेजते हुए एक खास मुद्दा उठाया है, अर्थात् क्या स्थानीय सरकार ट्रान्सवालमें रहने के हकदार भारतीयोंकी शिनाख्त कराने में भारतीय समुदायकी इच्छा और भावनाओंको जान लेनेकी कृपा करेगी। जनरल स्मट्स कहते हैं, 'नहीं'। इसका जवाब देना अब भारतीयोंका काम है। अब यह उनकी मर्जीपर है कि वे ट्रान्सवालमें एक सर्वथा अपमानभरा जीवन बितायें अथवा ब्रिटिश साम्राज्यके नागरिक और मानव गिने जानेके लिए एक सर्वोपरि प्रयत्न करें।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २४-८-१९०७


[१] देखिए “पत्र: जनरल स्मट्सके निजी सचिवको", पृष्ठ १४८-४९ और १६४-६५।

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