जा सकता है, फिर भी उनकी आशा पूरी नहीं हुई। इसलिए अब बकवास शुरू हुई है। नहीं तो, हमारी लड़ाई और काफिरोंके बीच क्या सम्बन्ध है? क्या उनसे भारतीय समाजपर आक्रमण करवाना है? ऐसा शकुन तो बिस्तरसे लगे हुएके मुंहसे ही निकल सकता है!
लेकिन जनरल स्मट्सके उत्तरसे हमें जो एक बात अच्छी तरह याद रखनी चाहिए सो यह है कि ट्रान्सवालके भारतीय दरअसल दढ रहेंगे. अपने धनका त्याग करेंगे धनका त्याग करेंगे, जेलके दुःख भोगेंगे और निर्वासित होने में अपनी प्रतिष्ठा समझेंगे, तभी हमारी जीत होगी। यह सारा बलिदान हम तभी कर सकेंगे जब खुदापर हमारा सच्चा भरोसा होगा। यानी, हिन्दू या मुसलमान प्रत्येक भारतीयके लिए ईमानपर बात आ टिकी है। ईमान-रूपी तलवार हर दुःखको काट सकेगी, और वह ईमान हमें बोलकर नहीं, करके दिखाना है।
इंडियन ओपिनियन, २४-८-१९०७
१४७. क्या हम न्याय परिषदमें जा सकते हैं?
सर रेमंड वेस्टने श्री रिचके नाम जो पत्र लिखा है वह पढ़ने योग्य है। श्री वेस्ट बम्बई उच्च न्यायालयके न्यायाधीश थे। वे कानूनके प्रसिद्ध हिमायती है। उनकी राय है कि भारतीय समाज [न्याय परिषद् (प्रिवो कौन्सिल) में] प्रश्न उठा सकता है कि चूंकि नया कानून ब्रिटिश विचारधाराके विरुद्ध है इसलिए निःसत्व है। यदि यह किया जा सकता हो तो यह कदम निस्सन्देह उठाने योग्य है। किन्तु हमें खेदपूर्वक कहना होगा कि इसमें कुछ सार नहीं। ट्रान्सवालके बड़े-बड़े वकील इस विचारके विरुद्ध हैं। इसलिए सर रेमंडको रायके आधारपर हम कोई आशा नहीं बाँध सकते। भारतीयोंकी सच्ची न्याय परिषद उनकी हिम्मत है। उनकी सुनवाई करनेवाला केवल खुदा है। और उस खुदाका भरोसा ही उनका जबरदस्त वकील है। उसकी हिमायत कभी निष्फल नहीं हो सकती। इतना होनेपर भी समाजकी सुविधाके लिए समितिको सूचित किया गया है कि वह विलायतके बड़े वकीलोंकी राय ले। इसमें धनकी जरूरत होगी। अतः हमारे कथनानुसार यदि समितिको सहायता भेजी जायेगी तो परीक्षणात्मक मुकदमा लड़ा जा सकता है या नहीं, इस शकका निराकरण किया जा सकेगा।
इंडियन ओपिनियन, २४-८-१९०७