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सात

"शान्तिके देवदूत" श्री कार्टराइट, जो अपनी धर्म-बुद्धिकें सन्तोषके लिए खुद भी जेल हो आये थे, गांधीजीसे जेल में मिलने और समझौतेके प्रस्तावोंपर चर्चा करने के लिए आये। कार्टराइट प्रोग्रेसिव पार्टीकी उस शाखाके अनुयायी थे जो साम्राज्यवादकी जिम्मेदारियोंको तब भी गम्भीरता पूर्वक निभानेकी इच्छा रखती थी। श्री कार्टराइट अपने साथ एक पत्रका मसविदा लाये थे जिसे यदि जनरल स्मट्सने खुद तैयार नहीं किया था, तो अपनी स्वीकृति अवश्य दी थी।

इस मसविदेमें गांधीजीने जो परिवर्तन किये (पृष्ठ ३९-४१) वे उनकी विचक्षण दूरदृष्टि और समझौतेकी इच्छाका परिचय देते हैं। समझौतेके इस पत्रकी शब्दरचना ऐसी रखी गई थी कि उससे "गोरोंके जीको अकस्मात् चोट न पहुँचे" और जनरल स्मट्स द्वारा दिये गये मौखिक वचनको―उदाहरणके लिए, एशियाई पंजीयन अधिनियम रद करनेके वचनको―लिपिबद्ध नहीं किया गया था। उसमें उन्होंने मुख्य रूपसे उन भारतीयोंके अधिवास-सम्बन्धी (डोमीसिलियरी) अधिकारोंको सुरक्षित करनेका प्रयत्न किया था जो उस समय ट्रान्सवालके बाहर थे। ये लोग अधिकांशमें एक तो शरणार्थी थे जो बोअर युद्धके दरम्यान उपनिवेशको छोड़कर चले गये थे; और दूसरे वे जिनके पास अपने अधिवास-सम्बन्धी हकके प्रमाणके रूपमें डच प्रमाणपत्र थे―ये उपनिवेशके भीतर भी थे और बाहर भी। उन्होंने स्वेच्छया पंजीयनसे बालकोंको मुक्त करने के लिए भी कहा था और सबसे ज्यादा तो इस बातका आग्रह किया था कि स्वेच्छया पंजीयन करानेवालोंको न केवल अधिनियममें उल्लिखित सजाओंसे बल्कि अधिनियमसे ही मुक्त रखा जाये। यदि ये परिवर्तन स्वीकार न किये जायें तो गांधीजी और उनके साथी सत्याग्रही जेलमें ही बने रहना चाहते थे। कारण, "आत्मसम्मान मनकी ऐसी स्थिति है जो अधिकारोंकी क्षतिको गवारा नहीं करती।" और सत्याग्रहका भी यही लक्षण है।

गांधीजी स्मट्ससे ३० जनवरीको, और फिर ३ फरवरीको मिले और उन्होंने इस बातका इत्मीनान कर लिया कि (१) स्वेच्छया पंजीयन, एशियाई पंजीयन अधिनियमके अन्तर्गत नहीं, बल्कि प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियममें उचित संशोधनके द्वारा या दोनों पक्षोंको स्वीकार्य अन्य उपायों द्वारा वैध किया जायेगा और (२) एशियाई पंजीयन अधिनियम "संसदकी अगली बैठक में " रद कर दिया जायेगा। स्मट्सने रिचमंडमें अपने ६ फरवरी के भाषणमें (परिशिष्ट-८) अपने इस वैयक्तिक वचनकी सार्वजनिक रूपसे पुष्टि कर दी। यहाँतक कि चैमने के कहने पर गांधीजीने भारतीय और चीनी भाषाओंमें एक विज्ञप्ति तैयार की, जिसमें यह आशा दिलाई गई थी कि "अगर एशियाई समझौतेका अपना हिस्सा पूरा कर दें," तो अधिनियम रद कर दिया जायेगा। (पृष्ठ ४३१)। उन्होंने यह विज्ञप्ति डोकके घरमें, जहाँ वे अपने ऊपर हुए हमलेके बाद आराम कर रहे थे, रोग-शय्यापर पड़े-पड़े तैयार की थी।

भारतीयोंने सामुदायिक रूपमें पहली बार ११ सितम्बर, १९०६ को और फिर २९ मार्च १९०७ को स्वेच्छया पंजीयन करानेकी तैयारी बताई, इससे सरकारके सारे जायज उद्देश्य पूरे हो जाते थे―खासकर उपनिवेशमें वैध रूपसे रहनेवाले एशियाइयोंकी शिनाख्तका उद्देश्य तो पूरा हो ही जाता था। भारतीयों द्वारा यह प्रस्ताव एशियाई पंजीयन अधिनियमको रद करने के पर्यायके रूपमें किया गया था। यह अधिनियम इस अप्रमाणित आरोपपर आधारित था कि ट्रान्सवालमें रहनेवाले अधिकांश भारतीय उपनिवेशमें छल-कपटका आश्रय लेकर आये हैं। इस प्रकार इस कानूनमें आरोपका गूढ़ संकेत था और वह सारे समाजपर कलंकका टीका