पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 8.pdf/१४

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आठ

लगाता था। ट्रान्सवाल सरकार एक सालसे भी ज्यादा समय तक अपनी बातपर अड़ी रही और उसने भारतीयोंका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। फिर भी अन्तमें वह स्वीकार हुआ―इससे प्रकट होता है कि भारतीयोंकी यह सफलता कितनी बड़ी थी। लेकिन भारतीयोंको इसका अभिमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह विजय उनकी नहीं, सत्यकी थी। इसलिए भारतीयोंके विजय-सुखकी इस सर्वोत्तम घड़ीमें गांधीजी निरन्तर अपने देशवासियोंको विनम्रताकी सीख देते रहे और खुद उसका पालन करते रहे, ताकि जनरल स्मट्सको उनके गोरे मतदाताओंकी आँखोंमें नीचा न देखना पड़े।

अलबत्ता, ९ मईको इसी विषयपर लिखते हुए यह खुश चिकित्सक अपने संयमके अंकुशको थोड़ा ढीला करके थोड़ी देरके लिए आनन्द मनाता है क्योंकि उसे विश्वास है कि उसने बहुत सावधानीके साथ जो नश्तर लगाया है उसका घाव शीघ्र ही भर जायेगा: "मोटे तौरपर प्रायः प्रत्येक एशियाईने स्वेच्छया पंजीयनकी अर्जी दे दी है।...लगभग आठ हजार अर्जियाँ दी गई हैं। उनमें से छः हजार ठीक मानी जाकर मंजूर हो चुकी हैं। यह दोनों पक्षोंके लिए श्रेयकी बात है...। अब सरकारको अपना कर्तव्य पूरा करना है; अर्थात् उसे एशियाई अधिनियमको रद करना और स्वेच्छया पंजीयनको ऐसे ढंगसे वैध ठहराना है कि वह एशियाइयोंको भी स्वीकार हो...। भारतीय समाजने [नवागन्तुकोंकी बाढ़को रोकने के] औपनिवेशिक सिद्धान्तको स्वीकार कर लिया है। अतः अब संघर्षका कोई और कारण नहीं रहना चाहिए।" (पृष्ठ २१४)। लेकिन जनरल स्मट्स कुछ और भी चाहते थे।

हफ्तेपर-हफ्ते बीतते रहे और इस बीच में यह समझौता कार्यान्वित नहीं हुआ; सरकारने अपना वचन पूरा नहीं किया। भारतीयों और चीनियोंने अपना वादा प्रतिपक्षीको राह देखे बिना पूरा कर दिया, लेकिन उनमें सरकारसे वैसा ही करा सकनेकी न तो शक्ति थी और न उनके पास इसके साधन ही थे। स्मट्सने अपना वादा जान-बूझकर और इरादतन तोड़ा या नहीं, इस प्रश्नकी गांधीजीने 'दक्षिण आफ्रिकाना सत्याग्रहनी इतिहास' में काफी छानबीन की है। वे लिखते हैं, "उन्होंने (जनरल स्मट्सने)... २,००० एशियाइयोंका सम्भाव्य प्रवेश रोकने के लिए सारा समझौता तोड़ दिया है...।" सच तो यह है कि स्मट्स इससे भी आगे बढ़ गये थे। अगर वे अधिवासी भारतीयोंको इस बातके लिए राजी कर सकते कि वे मुट्ठी-भर शिक्षित भारतीयोंका आना रोकने में सरकारका साथ दें और इस प्रकार जिनका प्रतिनिधित्व वे नहीं करते थे उनके अधिकारोंको सरकारके हाथ बेच दें तो वे (जनरल स्मट्स) उपनिवेशके बाहरके २,००० एशियाइयोंको भी आने देने के लिए तैयार थे। उनका कहना तो यह था कि वे उपनिवेशमें एशियाइयोंकी आबादीको सिर्फ सीमित करना और घटाना चाहते हैं, परन्तु गांधीजीके कथनानुसार सच बात यह थी कि वे उसे उस नेतृत्वसे भी वंचित करना चाहते थे जो, "स्वस्थ और स्वाभाविक विकास" के लिए जरूरी था। दूसरी ओर, गांधीजी उपनिवेश-सचिवसे आग्रहपूर्वक अनुनय-विनय कर रहे थे और अपने देशवासियोंको लगातार समुचित सलाह-सूचना दे रहे थे। दोनोंसे ही वे अपनी बात जिन शब्दोंमें कह रहे थे उनके स्वरमें उनके मनकी निश्छलता और उत्कटताकी छाप है; यहाँतक कि कुछ लोगोंको उनको सलाह-सूचना, जिसमें कि अपने आग्रहोंको त्यागकर प्रतिपक्षीके दृष्टिकोणको समझनेकी क्षमता व्यक्त होती है, काफी कठोर जान पड़ेगी। "समझौतेके बारेमें प्रश्नोत्तरी" (पृष्ठ ७५―८३) राजनीतिमें अपेक्षित समझाने-बुझानेकी कलाका आदर्श नमूना है और