पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 8.pdf/१६

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दस

लिए, जेल जानेका कार्यक्रम नियोजित करने में उनकी दृष्टि जितनी "खूनी कानून" का विरोध करनेकी थी उतनी ही उसकी असंगतियाँ दिखानेकी भी थी: जैसे, आनेवाले एशियाइयोंके लिए एक कानून था और स्वेच्छया पंजीयन करानेवालोंके लिए दूसरा। फिर, सरकार व्यापारियोंसे, उनकी पूरी शिनाख्त करा चुकनेके बाद भी, उनके अँगूठोंकी छाप माँगती थी। गरज यह कि आन्दोलनके दरम्यान गांधीजी विरोधपर नहीं, हमेशा दलीलपर ही जोर दे रहे थे। वे न्यायकी दृष्टि से अपने पक्षकी प्रबलता और प्रतिपक्षकी निर्बलता सिद्ध कर रहे थे।

सत्याग्रह एक ओर तो ऐसी चमकीली तलवार है जिसे "हृदयके सानपर चढ़ाकर" तेज किया जाता है, दूसरी ओर वह ऐसा उज्ज्वल प्रकाश भी है जिससे शत्रु चौंधिया जाता है और सत्यके आगे झुक जाता है― उस सत्यके आगे जो "जनरल स्मट्स...या गाँधीसे बड़ा है"। वह शत्रुको हारकी लज्जाका अनुभव नहीं होने देता और फिर भी उसे सुधार देता है। वह करुणाकी ऐसी मनःस्थिति है जिसमें व्यक्ति दूसरोंके साथ अपना मानसिक योग साधता है और जिसमें वह दूसरेके लिए कष्ट सहकर ज्यादा शुद्ध और निर्मल बनता है। अपने ऊपर हमला होनेके बाद गांधीजीने जो किया वह सत्याग्रहका बहुत सुन्दर उदाहरण है। उस समय अपनी रोग-शय्यासे गाँधीजीने जो सन्देश भेजा था उसमें उनके मनकी अकृत्रिम निश्छलता, और पारदर्शी शुद्धता बहुत अच्छी तरहसे प्रतिबिम्बित हुई है। इस सन्देशमें उन्होंने हमलेकी घटनाके बाद तुरन्त ही आक्रमणकारियोंके प्रति अपनी क्षमाका ऐलान किया था। आखिर उन्होंने अपने "मेरा सम्मान" लेख में (पृष्ठ ९०-९४) जैसा कहा है, उसकी मानो उन्हें पूर्व-अपेक्षा ही रही हो। ("अगर मारना ही हो तो सबसे पहले मुझे मारें।" पृष्ठ ५५)। इसके सिवा, सत्याग्रह भयकी वृत्तिका, जो मनुष्यके अधिकांश चारित्रिक पतनका कारण है, अतिक्रमण करनेको कहता है। सत्याग्रही अपने अन्तरमें जिस सत्यका अनुभव करता है, उसके प्रति उसे अपने आचरणमें पूरी वफादारीका पालन करना चाहिए। समानताके लिए प्रयत्न करना मनुष्यका कर्तव्य है और अधिकार है, क्योंकि प्रेम और मैत्री समानोंमें ही हो सकती है। जहाँ सत्याग्रहके लिए आवश्यक उत्कृष्ट वीरता पर्याप्त मात्रामें न हो या उसका नितान्त अभाव हो और बल या अन्यायकी अनिवार्य चुनौतीका मुकाबला करना हो वहाँ मनुष्यको कायरताके बजाय हिंसाको तरजीह देनी चाहिए। (पृष्ठ २७१)। "जीवित रहने के लिए मरना आवश्यक है। अधिकार प्राप्त करनेके लिए कर्तव्य पूरा करना होता है। (पृष्ठ २९३)। इस तरह देखने से स्पष्ट हो जाता है कि सत्य, वीरता और सत्याग्रह मनकी एक ही स्थितिके पहलू है। इसीलिए एशियाई पंजीयन अधिनियम "मेरे ईमान और मेरी आजादीके खिलाफ" था। गाँधीजीकी मानवोचित नैतिकता जिन सौम्य संयमोंका विधान करती है उनका मर्म समझनेके लिए हमें उनकी कर्तव्यको कल्पनाका―जिसपर उनका जबरदस्त आग्रह है―खयाल अवश्य रखना चाहिए। यही कारण है कि आवश्यक सैनिक सफलताओंको वे अपना समर्थन देनेसे एकदम इनकार नहीं करते। "जबसे जापानी वीरोंने मंचूरियाके मैदानमें रूसियोंको धूल चटाई है, तबसे पूर्व में सूर्योदय हो चुका है। यह प्रकाश आज समस्त एशियाई लोगोंपर पड़ने लगा है। अब पूर्व के लोग घमण्डी गोरों द्वारा किये गये अपमानको अधिक समय तक हरगिज सहन न करेंगे।" (पृष्ठ ३१६)। लेकिन सत्यकी आवाज उन्हें अविलम्ब संयत विचारकी भूमिकापर लौटा लाती है। "पूर्व हो चाहे पश्चिम, फेर केवल नामोंका है,... सदाचारके पालनका पट्टा कोई विशिष्ट जाति लिखा कर नहीं लाई है।" (पृष्ठ २०४)।