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भूतपूर्व सैनिकोंका मुकदमा

आपने हाल ही में भारतकी यात्रा की है?

हाँ।

और अभी-अभी लौटे हैं?

हाँ, कोई दो सप्ताह हुए।

श्री जॉर्डन: क्या तुम लिख सकते हो?

[अभियुक्त:] नहीं।

भारतमें तुम अपना वेतन कैसे पाते थे?

मैं निशान लगा दिया करता था।

क्या तुम अपनी अँगुलीकी छाप नहीं लगाते थे?

नहीं।

यहाँ गवाही समाप्त हो गई।

श्री गांधीने कहा कि अदालतने जो बात कही है उससे मुझे कुछ आश्चर्य हुआ है। महानुभावने कहा है कि कुछ भारतीय और चीनी आपसे मिले हैं और उन्होंने कहा है कि वे पंजीयन करानेसे डरते हैं। सौभाग्यसे या दुर्भाग्यसे अदालतके सामने दो सैनिक खड़े हैं, जिनके किसीसे जरा भी भयभीत होनेकी सम्भावना नहीं है। और वास्तवमें आखिरी गवाहने तो कहा भी है कि उसके भयभीत होनेकी सम्भावना नहीं है।

मजिस्ट्रेट: आप भली-भाँति जानते है, श्री गांधी, कि मैदानी जातियों और पहाड़ी जातियोंमें बहुत बड़ा अन्तर है। यह आदमी पहाड़ी जातिका है।

श्री गांधीने कहा कि बहुत बड़ा अन्तर जरूर है; परन्तु भयका तो यहाँ कोई प्रश्न ही नहीं है। और यदि भयका कहीं कोई प्रश्न हो तो कानूनकी बाँह देशके छोटेसे-छोटे प्रजाजनकी रक्षा करने के लिए यथेष्ट लम्बी और शक्तिशाली है।

श्री जॉर्डन: मुझे सन्देह नहीं, वह ऐसी होगी।

श्री गांधीने कहा कि मेरा निश्चित खयाल है कि किसीको पंजीयनका प्रमाणपत्र न लेनेके लिए डराया गया है, यह कहना व्यर्थ है; और, जैसा कि गवाहों में से एकने कहा है, अँगूठे या अँगुलियोंके निशानका कोई प्रश्न ही नहीं है। प्रश्न तो ऐसा है जो समाजके मर्मस्थलपर आघात करता है; प्रश्न तो अनिवार्यतः या स्वेच्छया कार्य करनेका है।

श्री जॉर्डनने कहा कि यदि श्री गांधी अदालतके बाहर सभा करना चाहें तो वे कर सकते हैं।

श्री गांधी: अदालतने रास्ता दिखा दिया है; अन्यथा मैं शान्त ही रहता।

श्री जॉर्डन: मैं और कोई बात नहीं होने दूँगा। इसका मुकदमेसे कोई वास्ता नहीं।

श्री गांधी: मैं नहीं चाहता कि जनता अदालतके मनपर यह छाप छोड़े कि यह सारी लड़ाई अँगूठे या अँगुलियोंके निशानोंके बारेमें है। यह सारी लड़ाई स्वाधीनताकी लड़ाई है।

श्री जॉर्डनने कहा कि भारतीय और चीनी दोनों ही मेरे पास आये थे और उन्होंने शिकायत की है कि कुछ लोगोंने उन्हें धमकाया और डराया है कि वे पंजीयन कराने न जायें, और यही कारण है कि उन्होंने पंजीयन नहीं कराया।

आज्ञा जारी की गई कि अभियुक्त १४ दिनके अन्दर देश छोड़ दें।

[अंग्रेजीसे]

इंडियन ओपिनियन, ११-१-१९०८